महर्षि श्रृंग का जन्म त्रेता युग में अषाढ़ मास की पूर्णिमा की पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में शापित देव कन्या मृगी के गर्भ से हुआ। उनके पिता महर्षि विभाण्डक – ब्रह्माजी के मानस पुत्र मरीचि के पौत्र व कश्यप मुनि कि पुत्र थे जो परम तपस्वी, वेदों के महान विद्वान एवं ब्रह्मनिष्ठ ऋषि थे।
एक दिन विभाण्डक ऋषि वन में कंदमूल फल लेने गए थे। लौटने पर जब अपने पुत्र ऋष्य श्रृंग को आश्रम में नहीं पाया तो बड़े क्षोभित और क्रोधित हुए। हुआ ये कि विभाण्डक ऋषि की अनुपस्थिति में अंगदेश के राजा महाराज रोमपास के ऋषि श्रृंग को अंग देश बुलाकर अपनी रूपवती एवं गुणवती पुत्री शान्ता का शुभ विवाह वैदिक विधि से उनके साथ कर दिया और राज्य का कुछ भाग भी उनको अर्पित कर दिया।
महर्षि विभाण्डक ऋषि श्रृंग को खोजते हुए गांवों में सत्कार पाते हुए अंग देश की राजधानी पहुंचे तो राजा रोमपाद ने अत्यंत श्रद्धा एवं समारोह से उनका स्वागत किया। इससे ऋषि विभाण्डक का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने राजा रोमपाद के राजमहल में पहुंच कर देखा कि राजभवन में ऋषि श्रृंग अपनी पत्नी राजकुमारी शांता सहित ऐसे विराजमान हैं जैसे देवलोक में इंद्र इंद्राणी सहित शोभा पाते हैं। पिता को देखते ही पुत्र तथा वधु ने मुनि के चरण छुए और उनका पूजन किया। मुनि ने उन्हें पुत्रवान, पौत्रवान होने का आशीर्वाद दिया तथा राजा रोमपाद को भी आशीर्वाद देकर अपने पुत्र से कहा इस राजा की जो भी इच्छा हो पूरी करना और एक पुत्र होने के पश्चात वन में लौट आना। विभाण्डक ऋषि कुछ समय तक राजा का आतिथ्य करके पुत्र को वहीं छोड़ तप करने वन में चले गए। तत्पश्चात अंग देश के महाराज रोमपाद तथा अयोध्या के महाराजा दशरथ ने पुत्रोष्ठि यज्ञ किए एवं उनके संतानोत्पत्ति हुई।
उधर अंग देश की राजधानी में गृहस्थ आश्रम में राजपुत्री शांता सहित राज महलों में रहते हुए भी ऋषि श्रृंग प्रतिदिन प्रात: सायं-संध्या, अग्निहोत्र आदि पंच महायज्ञ और वेदों का स्वाध्याय करते रहे। कुछ काल पश्चात शांता के गर्भ से उनके एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ जिसका नाम शांत-शारंगी रखा गया। वह अत्यंत स्वरूपवान और गुणवान था। ऋषि श्रृंग ने उसको विधिवत ब्रह्मचर्य का पालन कराते हुए स्वयं वेदों का अध्ययन कराया, जिससे वह श्रेष्ठ वेदवेत्ता सारंग्य ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसके आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें उग्र, वांम, भीम और वासदेव तो अजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर ब्रह्मा में लीन हो गये वत्स धौम्य देव, वेद दृग तथा बेद-बाहु ने ब्रह्मचर्य पूर्वक वेदाध्ययन करने के पश्चात गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया।
वत्स के वंश में मीमांसा दर्शन रचयिता महामुनि जैमिनी हुए। जैमिनी के वंश में शांति देव और शांतिदेव के कुल में कौडिन्य नाम के ऋषि हुए। कौडिन्य का अंगिरा नाम भी प्रसिद्ध हुआ। कौडिन्य ऋषि के कुल में शमीक नाम के ऋषि और शमीक ऋषि से तेजस्वी श्रृंगी ऋषि पैदा हुए। श्रृंगी ऋषि के वेद वक्ता पुत्र शांडिल्य ऋषि हुए। 7 ब्रह्म तेजस्वी पुत्र हुए जिनके नाम ज्ञानेश्वर, वाराधीश, भीमेश्वर, गोबिंद, दुग्धेश्वर, अनिहेश्वर और जयेश्वर हुए इन सातों के 24 पुत्र हुए एवं इन ऋषियों से ही सिखवाल समाज के 54 गोत्र आदि प्रादुर्भूत हुए हैं।
ऋषि श्रृंग ने देखा कि उनका पुत्र ब्रह्मचर्य पूर्वक वेदों का अध्ययन करके विद्वान हो गया है, तब उन्होंने पिता के कहे हुए वचन का स्मरण हुआ कि एक पुत्र होने के पश्चात वन में चले आना फिर उन्होंने ध्यान पूर्वक आत्म चिंतन किया तो अनुभव हुआ कि पिता के आश्रम में कंद, मूल फलों का सात्विक आहार करते हएु उनका जीवन कितना पवित्र शुद्ध एवं तपोमय था और अब राजमहल में राज्यान्न, नाना प्रकार के मिष्ठान, एवं पकवान आदि ग्रहण करते हुए वहीं जीवन कितना भोगमय पराड्गु मुख हो गया है? आत्मचिंतन एवं ध्यान करने से उनकी अंतर्मुखी प्रज्ञा पुन: जाग्रत हो गई। तब वे राजा से अनुमति लेकर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर पुन: वन में चले गए और गंगा के किनारे तप करने लगे। माता शांता भी राज महलों को त्याग कर उनके साथ तप करने में रत हुई। ऋषि श्रृंग का यह आश्रम गंगातट पर श्रृंग रामपुर में है जहां प्रतिवर्ष बड़ा मेला लगता है।
कोलकाता में सिखवाल समाज की निम्न संस्था है:
सिखवाल नव युवक संघ- 9, जकारिया स्ट्रीट, कोलकाता-700007
सिखवाल समाज की उत्पत्ति
श्री राम प्रकाश उपाध्याय, हैदराबाद (इस लेख के शोध संग्रह एवं संकलनकर्ता) के अनुसार सकल सृष्टि के रचयिता परमपिता ब्रहा् के मानस पुत्र महर्षि मरीचि और महर्षि मरीचि के के पुत्र कश्यप हुए तथा महर्षि विभाण्डक कश्यप ऋषि के पुत्र हुए । महर्षि विभाण्डक का आश्रम अंगदेश वर्तमान में बिहार के कोशी नदी के तट पर है। इस आश्रम में शापित देव कन्या मृगी या मृगपदा के गर्भ से मह्रर्षि श्रृंग का जन्म हुआ । महर्षि श्रृंग का जन्म त्रेता युग 871540 वर्ष पुर्व अषाठ शुक्ल पुर्णिमा को हुआ ।
महर्षि श्रृंग का जन्म शापित देव कन्या मृगी के गर्भ से हुआ था । इसलिए उनके सिर पर सिंग था । कुछ लोगों का मानना है कि महर्षि श्रृंग ज्ञान और आदर्शों के रुप में श्रृंगवत या चोटी के विद्धान थे I इसलिए श्रृंग ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुए । एक समय अंगदेश में वर्षा नही होने के कारण भंयकर आकाल पड़ा । चारों ओर पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ था । उस समय नारद मुनि अंगदेश पधारे ।
राजा रोमपाद ने नारद जी को अनावृष्टि और जनता के कष्टों का वृतांत सुनाया और इसका उपाय बताने का निवेदन किया । तब नारद जी ने कहा कि राजन कोसी नदी के तट पर महर्षि विभाण्ड के आश्रम में परम तेजस्वी ऋष्य श्रृंग तप कर रहे हैं । वे वैदिक कर्मकाण्ड और वृष्टि यज्ञ के ज्ञाता हैं। उन्हे आप आदर पुर्वक अपने राज्य में ले आओं और उनके द्धारा वृष्टि यज्ञ करवाओं तो अवश्य वर्षा होगी । लेकिन पिता महर्षि विभाण्ड के तप,तेज और उग्र स्वाभाव के भय से किसी में ऋषि श्रृंग को लाने का साहस नहीं हुआ ।
तब नगर की कुशल नर्तकी गायिका को युक्ति से श्रृंग ऋषि को लाने का कार्य सौंपा गया । और वह लाने में सफल हुई । ऋषि श्रृंग के अंगदेश में कदम रखते ही मुसलाधार वर्षा हो गई ।अंगदेश के राजा रोमपाद ने स्वागत सत्कार का किया और राजा ने अनावृष्टि से प्रजा की दारुण व्यथा सुनाई । महर्षि श्रृंग वेद विधि से वृष्टि यज्ञ करवाया एवं समस्त प्रदेश में पर्याप्त वर्षा हुई । इस यज्ञ के बाद परम हर्षित होकर अपनी रुप गुण संपन्न पुत्र शांता का विवाह महर्षि श्रृगं के साथ संपन्न कराया । शांता माहाराजा रोमपाद की दत्तक पुत्री थी I
महाराजा रोमपाद की संतान नहीं थी । तब अत्य़धिक स्नेह और गहरी मित्रता के कारण महाराज दशरथ और कौशल्या ने शांता को विशेष भेंट स्वरुप अर्पित की । तभी से शांता महाराज रोमपाद की पौध्या पुत्री कहलायी । अवधपति महाराज दशरथ का कोई पुत्र नहीं था । इस कारण वे अत्यंत दुखी थे । तब उन्होंने महर्षि वशिष्ठ और मंत्रियो से विचार-विमर्श किया । महाराजा दशरश ने महर्षि श्रृंग से कहा हे सुव्रत आप मेरे कुल की वृद्धि के लिए उपाए कीजिए । महर्षि ने कहा मैं आपके लिए अर्थ वेद में कहे हुए मंत्रों से विधिवत पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाउंगा । इससे आपका मनोरथ अवश्य पुर्ण होगा । महर्षि श्रृंग ने विधिपूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया । फिर अग्नि कुंड में से अतुल प्रभा युक्त स्वर्ण निर्मित और चांदी के पात्र में रखी दिव्य खीर प्रकट की और फिर उसे महाराजा दशरथ को दी । महर्षि ने कहा ये पुत्रोत्पादक, प्रशस्त और आरोग्य वर्धक है । इसे आप लीजिए और अपनी पत्नियों को खिलाएं । इसके प्रभाव से आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति अवश्य होगी । जिसके लिए आपने यह यज्ञ करवाया है । इसके पश्चात महाराजा दशरथ ने वह खीर अपनी तीनों रानीयों को पृथक पृथक बांट दी । इस खीर को खाकर तीनों रानियों ने गर्भ धारण किया। और यज्ञ समाप्ति के छह ऋतुऐं व्यतीत होने पर चैत्र मास की नवमी को कर्क लग्न में कौशल्या जी के गर्भ से भगवान श्री राम का जन्म हुआ । कैकैयी के गर्भ से सत्य पराक्रमी भरत ने जन्म लिया । वीर लक्षमण और शत्रुध्न सुमित्रा के गर्भ से जन्म हुआ ।
महर्षि श्रृंग दशरथ से विदा होकर अंगदेश आ गए । कुछ काल के पश्चात माता शांता के गर्भ से पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम शान्त सांरग रखा गया । जिसे महर्षि श्रृंग ने वेदों का अध्ययन कराया । और जिससे वह वेदवेदान्त सारंग्य ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुए और उन्ही से (श्रृंग वंश) अर्थात सिखवाल जाति का आर्विभाव हुआ । सारंग्य ऋषि के सात पुत्र हुए । इनके नाम 1- ज्ञानेश्वर 2- धाराशीश 3- भीमेश्वर 4- गोविंद देव 5- दुग्धेश्वर 6 – अनिलेश्वर और 7- जयश्वेर हुए । इन सात ऋषि के चौबीस पुत्र हुए और इन चौबीस ऋषिओं से श्रंग समाज सिखवाल ब्राह्ण के 57 गोत्र आदि प्रादुर्भित हुए ।