वेदमूर्ति महर्षि व्यास महर्षि पराशर जी के पुत्र थे। आपकी माता का नाम सत्यवती था। महर्षि पराशर का आश्रम यमुना द्वीप पर था। वेदव्यास जी का जन्म यहीं जमुना द्वीप पर हुआ था, अत: इनका नाम द्वैपायन एवं पराशर पुत्र होने के कारण पाराशर पड़ा। आपका रंग गहरा काला होने के कारण आपको कृष्ण द्वैपायन भी कहते हैं। बदरी वन में रहने के कारण इन्हें बादरायण भी कहते हैं।
पारीक प्रबोध में महर्षि वेदव्यास के संबंध में लिखा है-
' अट्ठाईसवें द्वापर में जब भगवान श्री हरि पराशर के पुत्र के रूप में द्वैपायन व्यास होंगे, तब पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण अपने छठे अंश में वासुदेव के श्रेष्ठ पुत्र के रूप में उत्पन्न होकर वासुदेव कहलायेंगे।
(शिव प्र. शतरुद्र संहिता पृष्ठ 304)
'महर्षि व्यास मूर्तिमान वेद थे। हिन्दु जाति उनकी चिर ऋणी रहेगी। हिन्दू संस्कृति का वर्तमान स्वरूप उन्हीं की देन है। भगवान व्यास कल्प के अंत तक रहेंगे. अब भी श्रद्धा भक्ति सम्पन्न अधिकारी महात्मा उनके दर्शन प्राप्त कर सकते हैं।
(विष्णु अंक पृ. 325)
इन्होंने पैल जैमिनि, वैशम्पायन और सुमित्र (इनका नाम सुमन्तु भी था, ये जेमिनि के पुत्र थे) को क्रमश: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद पढ़ाये तथा लोमहर्षक नामक सूत को महाभारत पढ़ाया।
(विष्णु अंक पृ. 323)
प्रत्येक मन्वन्तर में चारों युग आते हैं और जब भी द्वापर आता है, वेद व्यास जी अवतरित होते हैं। चूंकि द्वापर में मनुष्य की आयु अपेक्षाकृत कम होने लगती है अत: वह सम्पूर्ण वेदादि का अध्ययन नहीं कर सकता, अत: मानव मात्र से अध्ययन के लिए व्यास जी उनका विभाजन पुराणों के रूप में करते हैं।
वेदव्यासजी ने जहां पुराणादि साहित्य की रचना की वहीं महाभारत जैसे महान ग्रंथ के भी वे रचनाकार हैं। मानव मात्र के लिए अध्ययन की सुविधा के लिए, जिससे मनुष्य अल्पायु में भी वेदादि के एक अंश या भाग का अध्ययन कर सके, व्यास जी ने ऋग्वेद के 21, यजुर्वेद के 101, सामवेद के 1000 एवं अथर्ववेद को 9 भागों में विभक्त किया जो कुल 1131 हैं तथा वेद की शाखाओं के अध्ययन का नियम निर्धारित किया जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति वेद की कम से कम एक शाखा का तो अवश्य ही अध्ययन कर सके।
वेदव्यासजी केवल विद्वान, वेदों के ज्ञाता, लेखक और वेदों के वाचक ही नहीं थे अपितु महान योगी, युगद्रष्टा, भूत-भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता एवं अतीन्द्रिय शक्ति सम्पन्न महर्षि थे।
उन्होंने न केवल महाभारत अपितु उपनिषदों व पुराणों की भी रचना की। टॉड ने यह भी मत अभिव्यक्त किया है कि चूंकि वेदव्यास जी त्रिकाल द्रष्टा थे अत: उन्होंने जो कुछ भी लिखा है झूठा और काल्पनिक नहीं हो सकता।
पुराणों आदि में जो विसंगति वर्तमान में देखने को मिलती है उसका कारण मूल ग्रन्थों का नष्ट होना तथा उनकी व्याख्या अलग-अलग विद्वानों द्वारा अपने-अपने दृष्टिकोण से अलग-अलग किया जाना रहा है।
वेदव्यास जी की धर्मपत्नी का नाम चेटिका था तथा उन्हें पिंडला नाम से भी जाना जाता है जो सुमन्तु ऋषि की पुत्री थी। आपने ऐसे पुत्र की कामना की थी जो संकल्पसिद्ध, योगाभ्यासी, एवं ब्रह्मत्व का ज्ञाता हो, इस निमित्त आपने सुमेरू पर्वत पर भगवान शंकर की आराधना की। भगवान शंकर के वरदान से शुकदेव मुनि का आविर्भाव हुआ।