पारीक कुल में जैसे भक्ति-नभ का चमकीला सितारा करमेती बाई हुई हैं वैसे ही पुरोहित जगन्नाथ जी परम भगवद् भक्त और परचाधारी ज्ञानी हुए हैं। इनका वृत्तांत भगवद्भक्तों का वर्णन करने वाले भक्तमाल-ग्रन्थों में जैसे दिया हुआ है, वह प्रस्तुत है।
(1) भक्तकल्पद्रुम भक्तमाल में 20वीं निष्ठा में।
"जगन्नाथ बेटे रामदासजी के पारीक ब्राह्मण कान्हड़कुल (?) में धर्म और भक्ति के मर्यादा हुये। श्री रामानुज सम्प्रदाय के अनुकूल भगवत् शरण होकर मन को लगाया और उपासना के शास्त्र अच्छे प्रकार निज अभिप्राय उपासना का भली प्रकार सब समझा, सार और असार को ऐसा न्यारा-न्यारा कर दिया कि जिस प्रकार हंस दूध और पानी को अलग-अलग कर देता हो, मुनीश्वरों की भांति आचार व धर्म का आचरण करते थे, और अन्याय शरणागति व दश प्रकार की भक्ति के करने वाले दृढ़ हुए। पुरषोत्तम ने अपने गुरु के प्रताप से दोनों अंग में कवच, जिसको वख्तर कहते हैं, पहिना था, इसके अर्थ कई भांति के हैं-" प्रथम यह कि यह महाराज पुरोहित राजा के थे और शूरता-वीरता-विख्यात, सो एक जो शरीर है उसमें वख्तर पहिना करते थे, जैसा सिपाई लोग पहिनते हैं और दूसरा अंग जो मन है जिसमें सहिष्णुता और क्षमा का वख्तर धारण थ कि किसी की कठोर वाणीरूपी शस्त्र न लगे।
(2) दूसरा यह कि दोनों अंग जो दोनों भुजा तिस पर शंख और चक्र के चिन्ह धारण करके कलियुग के पा जो तीर व तलवार के सदृश हैं, उनसे शरीर की रक्षा किया। (3) तीसरा यह कि प्रगट अंग में भगवत् सेवा का ऐसा कवच पहिना था कि संसारी कार्य, जो तीर व तलवार से भी अति तीक्ष्ण हैं कदापि नहीं काम कर सके थे और हृदय में भगवत्-चितवन रूपी कवच पहिना था कि जिस करके दूसरी चिन्तारूपी शस्त्र स्पर्श नहीं कर सकता था।"
टीप- इससे इनका पारीक कुल में कांथडि़या खांप में उत्पन्न होना और पुरुषोत्तम गुरु और रामदास पिता तथा पण्डित और शस्त्रधारी वीर होना साथ ही परम भागवत् और रामानुज मतानुयायी होना भी प्रगट हुआ। कान्हड़ कुल यह शब्द कांथडि़या कुल का भ्रष्टरूप उल्थाकार ने किया है जैसे कि आगे प्रमाण से प्रगट होगा।
(2) रामरस- रंगमणिजी की वर्तिक प्रकाश भक्तमाल पृ. 800 में
(क) मूल।
"पारीक प्रसिद्ध कुल कॉंथड़या जगन्नाथ सीवॉं धरम"
"(श्री) रामानुज की रीति प्रीति पन हिरदै धारयो।
संस्कार सम तत्व हंस ज्यों बुद्धि विचारयो।
सदाचार, मुनि वृत्ति इन्दिरा पधति उजागर।
रामदास सुत सन्त अननि दशधा को आगर।
पुरुषोत्तम परसाद तें उभै अंग पहिरयो वरम।
पारीक प्रसिद्धकुल काँथड़या जगन्नाथ सीवां धरम"।।143।।
(ख) वार्तिकप्रकाश।
पारीक ब्राह्मण, कॉंथड़या कुल में उत्पन्न, श्री रामदास के पुत्र भक्त श्री जगन्नाथ जी भागवत धर्म की सीमा हुए। अनन्त श्री रामानुज स्वामी जी की रीति से भगवत्-प्रीति पन (नियम) आपने अपने हृदय में धारण किया। पंचसंस्कार तथा शास्त्र संस्कार और सब जगत् में समव्याप्त भगवत् तत्व को बुद्धि से दूध के समान सोच विचार के हंसवत ग्रहण कर आपने असत् वस्तु को जल के समान त्याग दिया।
मुनिजनों की सी सदाचार वृत्ति धारण कर, श्री लक्ष्मी सम्प्रदाय में परम प्रकाशमान हुए और साधुस्वभाव अनन्यशरणागत, दशधा(प्रेम) भक्ति में परम प्रवीण हुए। अपने श्री गुरु पुरुषोत्तम जी की कृपा से बाह्यान्तर दोनों अंगों में वर्म (वख्तर) धारण किया अर्थात् आप राजा के पुरोहित शूरवीर विख्यात थे इससे प्रगट शरीर में कवच पहनते थे, दूसरा सूक्ष्म अंतर अंग में क्षमा सहिष्णुता भक्ति का कवच पहिना जिसमें अंतर शत्रुओं के शस्त्र आपको न लगे। और दोनों भुजाओं पर भगवादायुध छाप तथा सूक्ष्म अन्तर अंग में श्री चरण चिन्ह ध्यान भी कलि के शास्त्रों के लिए कवच थे, सो सब धारण किए।
टीप- अनेक भक्त माल की प्रतियां देखने से प्रतीत हुआ कि इस मूल छप्पय नाभादास जी पर प्रियादास जी ने अपनी टीका का कवित्त नहीं लिखा। परन्तु नाभादासजी तो पयहारीजी के प्रशिष्य और कॉंथडि़ये पुरोहितों से भली प्रकार परिचित थे, क्योंकि अपने गुरु अमजीकीषजी के साथ उनके गुरुभाई पर्वतजी पुरोहित को नित्य ही देखा करते थे। क्योंकि पर्वतजी पृथीराजजी के पुरोहित और पयहारजी के शिष्य और परम भगवद्भक्त थे जो वैष्णव गोष्ठी में नारायण के प्रसाद ग्रहण में संयुक्त होते थे। इस ही कारण अपनी रची छप्पय में कॉंथड़या शब्द को भी शुद्ध लिखा है। क्योंकि यह शब्द मूर्द्धन्य बकार से प्राय: अधिक लिखा पढ़ा जाता था, न कि ककार से जैसा कि आजकल। ककार उच्चारण षकार के उच्चारण की अपेक्षा सरल होने से षकार का स्थान ककार ने ले लिया कि व्यौहारिक भाषा में और कैथी में कवर्गीय खकार की जगह मूर्द्धन्य ऊष्माण षकार ही लिखा जाता है। "प्रसिद्ध" शब्द देहलीदीपक न्याये, न उभय शब्दों में 'पारीष' और कुल कॉंथड़या जगन्नाथ को प्रकाशवान बनाता है, उधर 'पारिष' लोग उस काल में जब यह भक्तमाल ग्रन्थ बना अतिप्रसिद्ध कुल था उस समय पारीक लोग शस्त्रधारी और पंडित तथा भक्त भी होते थे। आमेर के राजा के पास भी पारीकों की फौज रहती थी जो वीरता के कामों में लड़ाइयों में जाकर नामी मारके काम करते थी। इधर (1) कुल कॉंथड़या प्रसिद्ध था ही कि राजा पुरोहित गुणी और भक्त थे जिनका गौरव भक्तमाल कारनाभाजी ने प्रत्यक्ष अनुभव किया (2) तथा जगन्नाथ जी पुरोहित भी अपनी भक्ति और शक्ति से परचों से जगत में प्रसिद्ध हो चुके थे। "सीवॉं धरम" कहने से ग्रन्थकार का यह अभिप्राय है कि भक्ति और धर्माचरण की उत्कृष्ट और अवधि मर्यादा तक जगन्नाथ जी उन्नत हो चुके थे कि हद्द पर जा पहुंचे थे। इन्दिरा-पधति=इन्दिरा=लक्षमी, श्री+ पधति, सम्प्रदाय। श्री सम्प्रदाय- श्री वैष्णवों की सम्प्रदाय और उनके मत की शैली।
रामानुज सम्प्रदाय को श्री सम्प्रदाय कहते हैं क्योंकि श्री रामानुजीय महाराज और उनके गुरु श्री यामुनाचार्य महाराज विशष्टाद्वैत मत के प्रतिपादक थे। वे लक्ष्मी जी मूला प्रकृति को, संख्या के प्रधान को नारायण श्री भगवान् का विशेष लक्षण मानते थे। गुण बिना गुणी का प्रकाश और ज्ञान नहीं हो सकता। अत: नारायण के ज्ञान और प्राप्ति का अर्थ लक्ष्मी का ज्ञान व उपासना जिज्ञासु की प्रथम आवश्यकता है और इसही लिये ही लक्ष्मीजी मार्ग प्रवर्तक और मुक्ति का हेतु है। इस और अन्य युक्तियों से यह श्री सम्प्रदाय कहाई। इस सम्प्रदाय में जगन्नाथजी पुरोहित उजागर (अतिप्रसिद्ध) हुए।"