मोहन जी उर्फ सेढ़ाजी कां‍‍थडिया

जयपुर के राज पुरोहितों के पूर्वज मोहन जी के सम्‍बन्‍ध में गोपाल नारायण जी बहुरा द्वारा सम्‍पादित "लिटरेरी हेरीटेज ऑफ रूलर्स ऑफ आमेर एण्‍ड जयपुर" 1976 संस्‍करण पृष्‍ठ 104 पर बिन्‍दु क्रमांक 57 पर निम्‍न उल्‍लेख है:-

57. पटरानी ताके भई, बड़ी जु खीचणी मान। 

राव अन्‍ल की है सुना, मौनलदे तिही जान।। 

उनके प्रोहित देव सी मोहन वा को पूत। 

वह खंथड़या दावजै, आयो महा सपूत।।

आमेर के राजा मानेसी (1094 से 1146 ईस्‍वी) के साथ रानी मोनलदे खींचन जी जो राव अनल जी गागसेन (गागसेन का किला इतिहास प्रसिद्ध रहा है।) का विवाह हुआ था और इन्‍हीं मोनलदे के डायजे में खांथडिया पुरोहित देव सी जी के सुपुत्र मोहन जी आये थे। जयपुर राज पुरोहित इन्‍हीं मोहन जी के वंशजों में हैं। 

आमेर के महाराजा का खींचीवाड़ा प्रांत के महाराजा के यहां विवाह हुआ था। खींचीवाड़ा की राजनी साहिबा भगवत्‍भक्‍त होने के साथ ही साथ परम ब्राह्मण भक्‍त भी थी। घटना साक्ष्‍य के आधार पर ऐसा कहा जाता है कि वे ब्राह्मण के नित्‍य दर्शन किया करती थी। विवाहोपरान्‍त जब वे जयपुर राजमहल में आई तो नित्‍य ब्राह्मण दर्शन की उनकी प्रवृत्ति का भान तत्‍कालिक महाराज को हो गया, रानी साहिबा के दर्शनों के लिए राजमहल में ब्राह्मणों की नियुक्ति की गई किन्‍तु उन्‍होंने स्‍थानीय ब्राह्मणों के दर्शन करने की अनिच्‍छा महाराज को प्रकट की।

अपने पीहर खींचीवाड़ा जाने पर महारानी साहब ने अपने पिताजी से उलाहने के रूप में कहा कि आपने मुझे सभी कुछ दिया और जयपुर में भी किसी प्रकार की कमी नहीं है किन्‍तु जैसा कि आप जानते हैं, मैं नित्‍य ब्राह्मणों के दर्शन किया करती हूं, यदि यहां का कोई ब्राह्ममण मेरे साथ जाता तो मेरे लिए नित्‍य नियम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती और मैं नित्‍य ही ब्राह्मण के दर्शन करती। जब रानी साहिबा खींचीवाड़ा से आमेर जाने लगी तो खींचीवाड़ा नरेश ने पं. राज श्री सेढ़ाजी को, जो कि उच्‍च श्रेणी के विद्वान, कुशल नीतिज्ञ एवं धर्म परायण व्‍यक्ति थे-अपनी कन्‍या के साथ भेज दिया। सेढाजी का आमेर आने पर उचित राज्‍योचित सम्‍मान किया गया तथा सेढाजी रानीसाहिबा के पुरोहित हुए। श्री सेढाजी पारीक कांथडि़या पुरोहित थे।

सेढाजी के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है जो निम्‍न प्रकार है:-

रनवास में मोरछली के पेड़ पर एक रोज एक गिलहरी बार-बार चढ़ती और उतरती थी। उस गिलहरी के इस प्रकार के कृत्‍य के संबंध में तत्‍कालीन नरेश ने स्‍थानीय विद्वानों से इसका कारण पूछा कि यह गिलहरी इस पेड़ पर बार-बार क्‍यों चढ़ती उतरती है। किंतु, उपस्थित विद्वानों में कोई भी गिलहरी के इस कृत्‍य के संबंध में संतोषजनक उत्तर नहीं दे सका। इस संबंध में पं. सेढ़ाजी से भी पूछा गया। श्री सेढाजी चतुर थे अत: उन्‍होंने सोच‍ विचार कर उत्तर दिया कि दिल्‍ली के बादशाह के यहां से महाराजा के लिए एक सुंदर संदूक खिलअत के सामान से भरा हुआ आवेगा और जब संदूक खोला जावेगा तो उसमें अन्‍य सामान के साथ एक गिलहरा भी होगा अत: गिलहरे के आने की खुशी में यह गिलहरी बार-बार मोरछली के पेड़ पर चढ़ उतर रही है तथा गिलहरे की तीव्रता से प्रतीक्षा कर रही है। उस समय तो सेढ़ाजी की बात को मजाक समझकर टाल दिया गया तथा कोई महत्‍व नहीं दिया गया किंतु कुछ ही समय बाद यह घटना हो गई, अत: बात के सत्‍य होने पर तथा भविष्‍यवाणी के ठीक निकलने पर राजमहल के अतिरिक्‍त सेढाजी का मान शहर में भी हो गया और लोग उनकी विद्वता की सराहना करने लगे।

श्री सेढाजी के दो पुत्र हुए, एक का नाम श्री हरजी तथा दूसरे का नाम पदमाकरजी था। पदमाकरजी आमेर रहे। चूंकि सेढाजी रानी जी के साथ डायजे के रूप में आये अत: आपके वंशज डायजवाल पुरोहित कहलाये। सेढाजी के प्रथम पुत्र हरजी खींचीवाडा़ चले गए तथा वहीं पर रहे अत: वे डायजवाल पुरोहित कहे जाने लगे। हरजी पुरोहित को राजा ने प्रसन्‍न होकर एक पातर भेंट की थी। पदमाकर जी ने अपने भाई हरजी से अनुरोध किया कि वो पातर न रखे। इस पर हरजी तीर्थ करने चले गये जिनमें अन्‍य तीर्थों के अतिरिक्‍त हरिद्वार जी भी सम्मिलित है। हरिद्वार तथा अन्‍य तीर्थ स्‍थानों पर उन्‍होंने अपने नाम से 'हर की पौड़ी' (अर्थात घाट) बनवाये। हरिद्वार की हर की पौड़ी आज भी हर जी का हमें स्‍मरण कराती है।

इन्‍हीं सेढाजी महाराज को सेढाजी वेद पुंज भी कहते हैं।

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