सीकर के पुरोहित जी के घराने के पूर्व पुरुष आरम्भ में खोह के निवासी थे। वह अलखाजी की खोह इस समय सीकर इलाके में रघुनाथ गढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। इनके पूर्वजों के पास उस समय के बनाए हुए मकान दुकानादि अब तक विद्यमान हैं। खौह रघुनाथगढ़ सीकर से उत्तर पूर्व 14 मील की दूरी पर है। राव शेखाजी के अन्यतम पुत्र दुर्गाजी के वंशज अलखाजी टंकणेत का इस पर शासन रहा है। इसिलए अलखाजी की खोह के नाम से यह परिचित है। प्राचीन ग्राम है। लेन्हार्गल माहात्म्य वर्णित परिक्रमा के क्रम में भी इसका नामोल्लेख मिलता है। सन् 1713 ई. में डा. मांडकार ने इस ग्राम का परिदर्शन किया था। वहां के एक पुराने महादेव जी के मन्दिर के सम्बन्ध में उनका कथन है कि यह दूसरी बार बनवाया गया है और कम से कम 12वीं शताब्दी से इतर का बना हुआ नहीं है। उन्होंने चन्देले वंशीय राजा का विक्रम संवत् 1150 का एक शिला लेख भी किसी कुएं की कीर्ति स्तम्भ देखा था। इस खौह का रघुनाथगढ़ नाम सीकर के देवसिंह जी का इस पर अधिकार होने से हुआ।
खौह के पश्चात इस घराने ने फतेहपुर को अपना निवास स्थान बनाया। यह कायमखानी नवाबों का समय था। नवाब इन से कर्ज लेकर अपनी आवश्यकता की पूर्ति करते थे। फतेहपुर में भी इनके उस समय के मकान दुकानादि विद्यमान हैं।
संवत् 1733 में इस घराने के पोकररामजी एवं मोहनराम जी ने तत्सामयिक अम्बर/आमेर नरेश महाराजाधिराज सवाई जयसिंह जी देव की आज्ञा से उत्साहित होकर सांगानेर का निवास स्वीकार किया। महाराजाधिराज की ओर से उन्हें व्यापार करने के लिए आधी जगात माफ करने की सुविधा दी गई थी। सांगानेर में दुकानों के अतिरिक्त हवेली मन्दिर और बाग उनके पुराने वैभव का परिचय दे रहे हैं।
संवत् 1784 में जब महाराजाधिराज सवाई जयसिंह जी ने शिल्प सौन्दर्य के विशालस्थल जयपुर नगर की नींव डाली तब श्रीमान ने पुरोहित घासीरामजी को अपने विशेष आज्ञा पत्र परवाना द्वारा बुलावा कर जयपुर में बसाया। जयपुर के जौहरी बाजार में पुरोहित जी का कटला के नाम से जो विशाल इमारत प्रसिद्ध है वह उन्हीं की बनवाई हुई है। वस्तुत: घासीरामजी ने इस घराने की कीर्ति को खूब बढ़ाया । सफल व्यापारी और कर्त्तव्य पटु व्यवहारज्ञ थे। क्रय-विक्रय की तिजारत के साथ-साथ उनके यहां लाखें रुपये का लेन-देन का कारोबार भी होता था। अपनी योग्यता से इन्होंने बड़ी दूर तक व्यापार का विस्तार कर धन एवं यश दोनों लाभ किये थे।
व्यापार के सिलसिले में महाराजाधिराज सवाई जयसिंह जी ने पुरोहित घासीराम जी को अपना मुद्रांकित पट्टा प्रदान किया था।
जयपुर राज्य की भांति ही जोधपुर राज्य की ओर से भी इस घराने को व्यापार करने के लिए आधी जगात की माफी का पट्टा मिला हुआ है। लेन-देन का सम्बन्ध इस घराने का जयपुर राज्य से भी रहा है। समय-समय पर जब राज्य को रुपये की आवश्यकता उपस्थित हुई तभी इन्होंने रकमें देकर सहायता की। महाराजाधिराज सवाई प्रतापसिंह संवत् 1848 के समय में इस घराने के पुरोहित लक्षमणदास जी से रुपये लेकर सूबेदार तुकोजी राव होल्कर को दिये गये थे। बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह जी ने भी इस घराने के साथ लेन-देन का व्वहारा रखा। बीकानेर राज्य के हिसाब बेवाकी संवत् 1943 में हुई है।
संवत् 1793 में राव शिवसिंहजी पुरोहित घासीराम को जयपुर से अपने साथ सीकर लिवा कर लाये और उसी यात्रा में उन्होंने हरमाड़ा के मुकाम फतहपुर की पट्टी के मौजे ताजसर का उदक सीगे पट्टा देकर अपने पुराने सुसम्बन्ध को दृढ़ किया। इससे पहले राव शिवसिंहजी के पिता और पितामह राव दौलतसिंह जी एवं जसवन्तसिंह जी पुरोहित घासीरामजी के पूर्वज मोहनरामजी के साथ व्यवहार कर चुके थे। राव दौलतसिंह जी ने संवत् 1752 में उदक रूप में भूमि प्रदान की थी जिसमें इस समय ढाणी आबाद है और पुरोहित जी की ढाणी के नाम से पुकारी जाती है।
राव शिवसिंह के समय से ही इस घराने को सीकर में स्थायी रूप से आबाद होने का सुयोग प्राप्त हुआ है। सीकर में प्रासादोपम हवेली और दुकाने पुरोहित घराने के स्वरूपानुरूप ही बनी हुई हैं। सीकर की ओर से प्रारम्भ में ही कासाखर्च भोजन व्यय नियत होकर उनके लिये निज की व्यवहारोपयोगी वस्तुओं पर पूरी तथा व्यवहार के लिए आधी जगात(कस्टम ड्यूटी) मुआफ की गई थी। इसके अतिरिक्त भी सब तरह की सुविधाएं उन्हें दी गई थी। राव शिवसिंह जी के परवर्ती राव समर्थसिंहजी, नाहरसिंहजी, चादसिंहजी, बुधसिंहजी, देवीसिंहजी और रावराजा लक्ष्मणसिंह जी प्रभूति ने भी यथा समय आराजी और कोठियां चाही उदक सीगे उत्सर्ग करी जिन का उपभोग यह घराना करता आ रहा है।
कठिन परिस्थितियों में इस घराने के साहस संपन्न पुरुषों ने सीकर को रुपये देकर पूरी सहायता पहुंचाई है। जयपुर राज्य के साथ मामला निश्चित होन पर न केवल सीकर की जमानत उन्होंने ली प्रत्युत बहुत समय तक मामले के रुपये भी वे ही भरते रहे। इस घराने के पुराने कागजात और सीकर दफ्तर से यह प्रकट है कि सीकर की फौतेदारी(ओहदा) तथा लेन-देन का क्रम संवत् 1792 से प्रारम्भ होकर बहुत समय तक जारी रहा। इतिहास प्रसिद्ध अमीर खां पिंडारी ने जब शेखावटी पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया तब पुरोहित सूरतरामजी व रामचन्द्र जी ने शेखावत सरदारों और उनकी प्रजा की हित कामना से प्रेरित होकर बड़ी रकम के द्वारा अमीर खां को हमला करने से रोका और वापिस लौटाया। इस सहायता के लिए तत्सामयिक शेखावाटी के सरदारों ने बड़ा आभार माना और उन्हें हाथी सिरोपाव के सिवाय कई गांव की जमीन उदक सीगे देकर अपना सम्मान प्रकट किया। जगात आदि की सुविधाएं दी गई।
इसी प्रकार राव राजा लक्ष्मणसिंह जी ने भी पुरोहित रामचन्द्र जी को संवत् 1869 में की हुई उनकी प्रशंसनीय सेवा के लिए हाथी सिरोपाय प्रदान कर अपने कर्मचारियों से नजर दिलवा कर सम्मानित किया था। उस समय के कुछ काल पूर्व पुरोहित जी को कस्बा लक्ष्मणगढ़ की नींव डालने के समय वहां पर जमीन दी गई जहां पर उस समय का बना हुआ विशाल कटरा है।
जयपुर राज्यवर्तीय ठिकाना खण्डेला, विशाल, श्यामगढ़, रणोली, सामरिया, बाटका आदि की ओर सभी आराजी चाही बारानी तथा विस्वेदारी और गांव इस घराने को उदब सीगै में मिले हुए हैं। रियासत जयपुर के अतिरिक्त अलवर राज्य में भी उदक की जमीन है। व्यवहार पास्परिक घनिष्ठता का है। खण्डेले के मामले के रुपये भी बहुत बरसों तक यह घराना अदा करता रहा है।
यह कहना पुनरुक्तिमात्र होगा कि संवत् 1792 में पुरोहित घासीराम जी को आदर पूर्वक सीकर में लाया गया था और उस समय से अब तक उनका घराना प्रथम श्रेणी का एक प्रतिष्ठित ठिकाना समझा जाता है और उसके प्रधान पुरुष को ताजीम के साथ ही दरबार में पहले नंबर की बैठक का गौरव प्राप्त है। इसके सिवाय वे सीकर नरेश की नजर की अपेक्षा न्यौच्छावर करते हैं और जयपुर के राज्यवर्ती समस्त ठिकानों के साथ उन का यही परम्परागत बर्ताव चला आता है। सीकर तथा अन्य ठिकानों के साथ पत्र व्यवहार खुद रईस के नाम से ही होता है।
श्री हररामजी अथवा हरनाथजी खौह के पुरोहित आदि सोलहवीं शताब्दी के पुरुष माने गये हैं और उनसे ही इस वंश की अलग सत्त प्रारम्भ हुई। इनके 5 पुत्र थे जिनमें सबसे छोटे मोहनरामजी उर्फ मूनरामजी थे जो अपने भाई पोकर रामजी के साथ 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सांगनेर में शेखावाटी से आकर बसे। वहां महाराजा मित्र हिजरी 1064 सन संवत् 17? राजा जयसिंह प्रथम के समय में उन्हें सांगानेर की मंडी बसाने में सहायता देने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने वहां हवेली, नोहरे, मंदिर, दुकानात व बाग लगाये व बनवाये। उसी स्थान पर इनके प्रपौत्र पुरोहित सूरतरामजी ने श्री रघुनाथ जी का विशाल मंदिर निर्माण किया जो अब भी अच्छी स्थिति में मौजूद है और उसके निज मणि मंदिर की किंवाड़ जोड़ी प र सं. 1844, सन् 1788 के समय की उनके नाम का पीतल का पत्र लगा हुआ है। इस मंदिर का स्व. स्वरूपनारायण जी ने जीर्णोद्धार कराया था।
उनके पश्चात सबसे प्रसिद्ध पुरुष घासीरामजी हुए जिनको महाराजा सवाई जयसिंह जी द्वितीय ने जयपुर बसाने के समय निमंत्रित किया और अनेक व्यापारिक सुविधायें प्रदान की और इन्होंने प्रसिद्ध पुरोहित जी के कटले की स्थापना सं. 1784-86(सन् 1728-30) में की जो आज तक विद्यमान है। इस कटले में अधिक मकानात आदि उनके सुपुत्र सूरतरामजी ने बनवाये और इसी कारण यह कटला सूरतरामजी के कटले के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। सांगानेर के मंदिर के निर्माता इन्हीं सूरतरामजी ने यहां कटले में भी सीतारामजी के मंदिर की स्थापना की और उसके पास ही एक विशाल छतरी त्रिपोलिया बाजार की माणक चौक चौपड़ की कूंट पर बनवा कर उसमें अपने पुरखे हररामी के गुरु एवं महात्मा महरवान जी की महाराज की गद्दी की स्थापना की जो अभी तक चली आती है और माघ शुक्ला 6 को इन्हीं महात्मा जी की स्मृति में निरंजनी साधुवों (उनके पंथी) का भंडारा यहां होता है। तब गद्दी की चादर बदली जाती है तो अर्चन वंदन होता है। यह महात्मा लोहार्गल तीर्थ में रहते थे और उसके पास ही बसे हुए खौह(आधुनिक रघुनाथगढ़) ग्राम में पुरोहित हररामजी निवास करते थे। श्यामजी की खाटू के पास एक महरबानजी की चौमू भी है जहां इन्हीं महात्मा की समाधि है और माघशुक्ला 6 को जहां मेला लगता है।
पुरोहित घासीरामजी अपने समय के बहुत बड़े व्यापार कुशल एवं राजनीतिज्ञ हुए थे और इनका व्यवसाय सम्पूर्ण राजपुताने में फैला हुआ था। भूतपूर्व रियासतों जयपुर, जोधपुर, अलवर, बीकानेर में इन्होंने अपने व्यापारिक क्षेत्र को बढ़ा रखा था। जयपुर राज्य में भूतपूर्व पटियाला रियासत का भी भाग सम्मिलित था। व्यापार के साथ-साथ नीति कुशल होने के कारण इनका राजनीतिक प्रभाव भी अत्याधिक महत्वपूर्ण रहा है। जयपुर राज्य के दीवानी हजूरी में इनके बहुमुखी कार्यों का पूर्ण ब्यौरा मिलता है। जयपुर राज्य व शेखावाटी के पारस्परिक सम्बन्धों की सुधारने में इनका प्रमुख हाथ रहा था।
इन्हीं पुरोहित जी को सीकर के राव शिवसिंह जी जयपुर से आमंत्रित करके अपने बसाये जाने वाले सीकर नगर में ले गये और जागीर ताजीम आदि से सुशोभित किया। सीकर में हवेली मकानादि बनवाये और श्री लक्ष्मीनाथजी के मंदिर की स्थापना की। इनके पौत्र तीन हुए थे जो तीनों ही प्रसिद्ध हुए। ज्येष्ठ सूरतरामजी का तो वर्णन आ गया है, उनके दो लघु भ्राता लक्ष्मणदासजी एवं रामचन्द्र जी हुए। इनकी धार्मिक प्रवृत्ति अधिक होने के कारण इनका शेखावाटी के ब्राह्मण समाज में बड़ा मान था। सीकर नगर के पास पुरोहित जी की ढाणी में इनकी स्मृति में एक छतरी एवं शिव मंदिर की स्थापना हुई। इनके कनिष्ठ भ्राता रामचन्द्र जी साहसी एवं वीर पुरुष थे और उनका टोंक के नवाब अमीर खां पिंडारी से मैत्री का घनिष्ठ सम्पर्क था जिसका उपयोग इन्होंने जयपुर राज्य एवं शेखावाटी के ठिकानों को उसके हमले से बचाने में किया।