"पारीक जाति के कांथडि़या खांप के एक आदि प्रवर्तक पुरुष कंथड़जी जिनको कंथड़ ऋषि भी कहते हैं, हुए हैं। ऐसा राव भाटों की पौथियों से पता चलता है। रावभाटों की पौथियों के अनुसार शुकदेवजी के 12 पुत्र हुए, जिनका होना यों लिखा है कि व्यास जी के, पराशर जी के जीते जी ही शुकदेवजी जन्मे थे। जनमते ही ओंवलनाल सहित वन में चले गए। तब बाबा पराशरजी और व्यास जी के पिता पीछे-पीछे गये और कहा पुत्र लौट आओ, सन्तान(वंश) हमारा कैसे चलेगा। तब शुकदेवजी ने वन में से डाभ उखाड़कर 12 पुतले बनाकर कहा कि आप इनका सेवन करो सो आप को मेरे 12 पुत्र हो जायेंगे। ऐसा ही हुआ, उनके नाम वे बतलाये जाते हैं:-
1. बच्छस, 2. कौशिक, 3. गौतम, 4. वशिष्ठ, 5. गर्गस, 6. भारद्वाज, 7. कश्यप इत्यादि। इन्हीं के वंशज 103 हुए, उन्हीं से पारीकों की 103 खांप व नख कहलाये। जो भी हो इन रावों के लेखों के अनुसार बच्छस (वत्स ऋषि के कंथड़ ऋषि हुए) श्री परमब्रह्म से लगाकर शुकदेव तक ये लोग 32 पीढ़ी बताते हैं। बच्छस 33वें हुए। तो इस हिसाब से कंथड़ व कंथडेश्वर 34 पीढ़ी में मिलते हैं क्योंकि ये बच्छस के पुत्र माने गये हैं।
परन्तु इन रावों के पास कोई प्रमाण नहीं कि ये लोग कब हुए और ये नहीं जानते कि किसी स्थल पर कोई वाक्य भी मिलता है या नहीं। 'पारीक वंश परिचय' में भी कंथड़ का कोई उल्लेख प्रमाण के सहित नहीं है। उसमें केवल कांथडि़यों के गौत्र, देवी, वेद, शाखा आदि और पुरोहिताई और गौरव आदि ही का वर्णन संक्षेप से दिया हुआ है। (देखिए इसकी प्रस्तावना, वंशवृक्ष और चौथा अध्याय) ग्रंथ निर्माण में सब ओर से पारीकों की सामग्री नहीं मिली।
'हठयोग प्रदीपिका' ग्रंथ महामति श्री स्वात्माराम योगीन्द्र की परम प्रामाणिक रचना है और हठयोग का प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसके 4 खंड उपदेश नाम के हैं और इस पर 'ज्योत्स्ना' संस्कृत टीका है और भाषा टीका भी अति सुबोध है। इसके प्रथम उपदेश में, छठे श्लोक में कंथडि योगी का नाम आया है। जिनमें महासिद्ध योगियों के नाम आए हैं वे श्लोक इस प्रकार हैं:
श्री आदिनाथमत्स्येन्द्रशावरानन्द भैरवा:।
चौरंगी मीनगोरक्षविरूपाक्षविलेशया:।।5।।
मन्थानो भैरवो योगी सिद्धिर्बुद्धश्च कंथडि:।
कोरटक: सुरानंद: सिद्धपादक्ष: चर्पटि:।।6।।
कानेरी पुज्यपादश्च नित्यनाथो निरंजन:।
कापाली विन्दुनाथश्च काकचण्डश्चिराह्वय:।।7।।
अल्लाम: प्रभुदेवश्च घोडाचोली च टिंटिणि:।
मानुकी नारदेवश्च खण्ड; कापालिकस्तथा।।8।।
इत्यादयो महासिद्धा हठयोगप्रभावत:।
खण्डयित्वा कालदेहं ब्रह्मांडे विचरंति दे।।9।।
हठयोग के सिद्धों की शिष्य परंपरा आदिनाथ श्री शिवजी से है। उनके इस योग के प्रधान शिष्य इस कलियुग में मत्स्येन्द्रनाथ हुये। मत्स्येन्द्र के अनेक शिष्य हुए। इन श्लोकों में जिन बाधो के नाम आए वे इस प्रकार हैं:-
मत्स्येन्द्र-शावर, -आनन्द भैरव-चौरंगी, मीननाथ-गौरक्षनाथ, विरूपाक्षनाथ-विलेशय-मन्थान-भौरव-सिद्ध-बुद्च, कन्थडि कोरंटकसुरानंद विद्धपाद-चर्पटी-कानेरी-पूज्यपाद-नित्यनाथ-निरंजन-कपाली-विन्दुनाथ-काकचण्डीश्वर-अल्लाम-प्रभुदेव-घोड़ा चोल(या एक ही नाम घोड़ा बोली-टिंटिणीं-मानुकी-नारदेव-खण्ड-कापालिक। इनको प्रधान मानकर तारानाथ आदि महासिद्ध योगी हठयोग के साधन से ब्रह्मांड में योग बल से कालदंड मृत्यू को जय करके (सूक्ष्म शरीर से) विचरते हैं। अर्थात् अपनी इच्छा में जहां चाहते हैं वहीं चले जाते हैं।
यहां प्रयोजन कंथड़ व कन्थडि(ऋषि या महासिद्ध) से है जो छठे श्लोक में आया है। ऐसा नाम अन्यत्र दृष्टिगोचर न होने से यही प्रतीत होता है कि कांथडि़यों के आदि पुरुष यही हों क्योंकि उनको ऋषि की पदवी योग के बिना मिल ही कैसे सकती थी। परन्तु इनका विशेष वृत्तांत न तो योग ग्रंथों में ही मिलता है न राव, भाटों की पौथियों में।
यदि यही कंथड ऋषि कांथडियों के मूल पुरुष हुए हों तो वे अवश्य गृहस्थ भी रहे होंगे तब ही उनकी संतान आगे चली। पूर्व में ऋषि और योगी लोग प्राय: सस्त्रीक ही होते थे। वशिष्ठ, पराशर, यज्ञवल्क्य, जनक आदि के चरित्रों से ऐसा ही प्रमाणित होता है।
'कंथडि' नाम के इस प्रकार मिल जाने से हमने यह अनुमान किया है कि कांथडिया शब्द की व्युत्पत्ति ऐसे ही 'कंथड' शब्द से होती हो। एक बात इस अनुमान की पुष्टि में और भी दी जा सकती है कि कंथड ऋषि के थोड़े ही अंतर से शाह जी और वराह जी हुए जो मारवाड़ देश में खींची राजा के यहां गए जहां योगियों का प्रकरण था।