परम भगवद् भक्‍त श्री 'खोजी' जी पारीक

जिस प्रकार पारीक जाति में पहले बड़े-बड़े विद्वान, धर्मनिष्‍ठ और जगद्गुरू, महात्‍मा उत्‍पन्‍न होते रहे हैं, उसी प्रकार इस जाति में ऐसे-ऐसे नर रत्‍नों की भी कमी नहीं थी कि, जिन्‍होंने तपस्‍या और धर्माचरण के द्वारा भगवान के साक्षात् दर्शन किये और जिनका नाम आदर के साथ भक्ति-महात्‍म्‍य के ग्रन्‍थों में आदर्श रूप में लिखा हुआ पाया जाता है। ऐसे ही भगवद्-प्रेमियों में 'खोजी' जी महाराज का नाम भी है। 

खोजी जी का जन्‍म सं. 1600 के करीब किशनगढ़ राज्‍यान्‍तर्गत 'ईटाखोई' नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम चेतनदास जी और पितामह का शुभ नाम हरिदास जी था। ये वत्‍सगोत्रीय 'लापस्‍या' जोशी थे। खोजी जी का पहला नाम चतुर्भुज या चतुरदास जी था। 'खोजी' नाम तो पीछे से पड़ा है, और वे बाद में इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये।

'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' इसी उक्ति के अनुसार बालकपन में ही चतुर्भुज (खोजी जी) की भगवद् भक्ति और चमत्‍कार के प्रभाव लोगों पर पड़ने लगे थे। पांच बरस की अवस्‍था में ही वे खेल कूद में मन नहीं लगाकर केवल श्री सीतारामजी के भजन में लीन रहने लगे थे। लोगों को इस बात से आश्‍चर्य होता था कि जो बालक केवल वर्णमाला और साधारण मारवाड़ी भाषा का ज्ञान रखता है, वह कैसे बाल-सुलभ चंचलता का दमन करके दिन में दो-दो घंटे पद्मासन पर बैठकर भजन कर सकता है। पर थोड़े ही दिन में लोगों का सारा आश्‍चर्य मिट गया और उन्‍हें जानकारी हो गयी कि यह बालक वास्‍तव में चमत्‍कारी पुरुष और योगी है।

खोजी जी के ध्‍यान और तपस्‍या से शंकित होकर माता-पिता ने बाल्‍यावस्‍था में ही खोजी जी का विवाह कर दिया था। ब्‍याह के समय खोजी जी की अवस्‍था केवल ग्‍यारह वर्ष की थी। ब्‍याह हो जाने के दूसरे वर्ष अर्थात् बारह वर्ष की उम्र में खोजी जी "ईटाखोई" ग्राम के कई स्‍नानार्थी, पुरुषों के साथ श्री गंगा स्‍नान के लिए हरद्वार को रवाना हुए। माता-पिता ने बहुत छोटी उम्र जानकर लोगों को ताकीद कर दी कि बालक की निगहवानी रखें और रास्‍तें में तकलीफ न होने दें। यह यात्रा गांव 'ईटाखोई' से मध्‍याह्न को शुरू हुई। उसके आगे दो कोस चलकर गांव धानणी के तालाब पर मुकाम हुआ और सबने निश्‍चय किया कि रातभर यहां व्‍यतीत करके प्रात:काल स्‍नान ध्‍यान कर फिर यात्रा करेंगे। दूसरे दिन प्रात:काल जब कि सब साथी लोग स्‍नान करने को तालाब पर चले गये, उस समय दो ब्राह्मण कन्‍याएं घड़ों में जल लाकर बालक चतुर्भुज से बोली 'महाराज स्‍नान करिये'। उस समय बालक खोजी जी ने कहा आप लोग कौन हैं, और स्‍नान कराने के लिए यहां आने का मतलब क्‍या है? तब उन कन्‍याओं ने उत्तर दिया कि 'हम दोनों गंगा यमुना हैं, आप भगवद् भक्‍त हो, बाल्‍यावस्‍था के कारण हमारे पास पहुंचने में तकलीफ होगी, इसी से भगवान की आज्ञानुसार आपको स्‍नान कराने के लिए आई हैं। आपको अब आगे जाना नहीं पड़ेगा, स्‍नान कीजिये।'

यह बात सुनकर बालक खोजी जी को हर्ष के साथ-साथ आश्‍चर्य भी हुआ। उन्‍होंने कहा कि मेरी इच्‍छा सर्वदा गंगा-जल से स्‍नान करने की है। इस पर कन्‍याओं ने कहा कि, अच्‍छार तुम्‍हारे लिए सर्वदा स्‍नान का भी प्रबन्‍ध हो जाएगा। भविष्‍य में तुम्‍हारा स्‍थान पालड़ी (मारवाड़) ग्राम में होगा। वहां से होकर एक कोस पर खार जमता है। वहां जाकर तुम गंगा-स्‍मरण करना, स्‍मरण मात्र से ही वहां तुम्‍हें गंगा दर्शन होगा, क्‍योंकि वह स्‍थान ऐतिहासिक है। महाराज परीक्षित के पुत्र जनमेजय के यज्ञ में तीर्थों का अवशिष्‍ट जल कलश में रखकर वहां ही गाड़ दिया गया था।

उसी जल से गंगा का दर्शन होगा, और वहां ही तुम्‍हारी सद्गति होगी। इस पर खोजी जी ने कहा कि खैर मेरे स्‍नान का प्रबन्‍ध तो हुआ पर हरद्वारा जाना जरूरी है, क्‍योंकि जो हमारे पूर्वजों की अस्थि जो मैं बटुए में लाया हूं, उसे हरि की पेड़ी पर ले जाना है, सो इसके लिए जाना ही पड़ेगा। तब उन कन्‍याओं ने कहा कि अस्थि का बटुआ यहां ही तालाब में डाल दो। वहां हरिद्वार में हरिकी पेडी पर यह बटुआ तुम्‍हारे साथियों को मिल जाएगा। यह बात उन्‍हें समझा दो। इस बात को सुनकर खोजी जी निरुत्तर हो गये और उन कन्‍याओं के लाये हुए जल से स्‍नान किया। स्‍नान के अनन्‍तर वे कन्‍याएं भी अदृश्‍य हो गईं।

बालक खोजी जी ने बटुवे को तो तालाब में डाला और उसे हरि की पेड़ी पर मिलने की बात बताकर साथियों को को आगे रवाना कर दिया और आप वापिस अपने गांव "ईटाखोई" पहुंचे।

अपने गांव के बाहर पहुंच कर खोजी जी ने घरवालों को सूचना दी कि "मैं तीर्थ स्‍नान करके आ गया हूं, मुझे वंदना कराने को आईये।" मारवाड़ में यह प्रथा है कि जो तीर्थ यात्रा करके आवे, उसे गाजे-बाजे के साथ गांव के अन्‍दर लाते हैं और उसके पास जो तीर्थजल होता है उसकी वंदना करते हैं, इसी का नाम वन्‍दना है। यह बातें सुनकर गांव के कतिपय व्‍यक्ति चेतनदास जी के पास जाकर हंसी करने लगे कि, आपका लड़का एक ही दिन रात में गंगा-स्‍नान कर आया है, वन्‍दना के लिये चलिये। वास्‍तव में इन बातों से पिता चेतनदास जी को भी भ्रम हुआ और वे पहिले पथवारी के पास गए-('पथवारी' की रस्‍म मारवाड़ प्रदेश में की जाती है। इसकी विधि यह है कि गांव में एक सुरक्षित स्‍थान में यात्रा के समय यव (जौ) बो दिया जाता है, घर वाले प्रतिदिन उसे जल से सिंचन करते हैं। अगर यव जम आया और अच्‍छी प्रकार हरा भरा रहा तो, इससे इस बात की परीक्षा होती है कि तीर्थ-यात्रा करने वाला मार्ग में सुखपूर्वक है, और सकुशल वापिस आ रहा है। यदि यह मलीन हुए या सूख जाएं तो यात्री को दु:ख और विध्‍न की आशंका की जाती है। इसी का नाम 'पथवारी' है।)

पथवारी के पास जाकर चेतनदास जी ने देखा कि खोजी के उद्देश्‍य से जो यव यात्रा के दिन बोए गये थे वे एक हाथ ऊंचे उग आए हैं, और अन्‍य यात्रियों के यव में अभी अंकुर भी नहीं निकला है। इससे सब लोगों का भ्रम दूर हो गया, और गांव वाले सभी बड़े प्रेम से बाल खोजी जी को गाजे-बाजे के साथ ग्राम में लाये। माता-पिता ने गंगाजली की पूजा कराकर अति उत्‍साह में न्‍यात और ब्राह्मणों को भोजन कराया, और गंगाजल जो खोजी जी जाये थे, वह सबको प्रदान किया। उधर, साथी यात्री लोग हरिद्वार पहुंचे। उन्‍हेंने देखा कि वही बटुवा जो खोजी जी ने तालाब में डाल दिया था, हरि की पेड़ी पर मौजूद है। इससे उन लोगों को भी विश्‍वास हो गया, वे लोग भी स्‍नान ध्‍यान पूर्वक गंगा में अस्थियों का प्रवाह करके करीब दो महीने में वापस आये और खोजी जी के चमत्‍कार का वर्णन करने लगे।

इस प्रकार थोड़ी उम्र में ही भक्ति का चमत्‍कार होने से बालक चतुर्भुज का नाम सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया। दूर-दूर के भक्‍त गण दर्शन और सत्‍संग के लिए आने लगे। कितने ही लौकि कामनाओं के प्‍यासे लोग भी उन्‍हें दिन-रात घेरे रहते थे। जब लोगों का आवागमन अधिक होने लगा, भजन में विध्‍न पड़ने लगा, तब खोजी जी इसके निवारण के लिए एक दिन, रात को बिना किसी से कुछ कहे-सुने वहां से चल दिए। चलते-चलते सदगुरु की खोज में वृन्‍दावन आये। वृन्‍दावन में प्रसिद्ध महात्‍मा श्री माधवदास जी के पास पहुंचे, और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। महात्‍मा माधवदास जी उनकी भक्ति और तपोनिष्‍ठा देखकर उन्‍होंने खोजी जी को अपना शिष्‍य बनाकर दीक्षा मंत्र प्रदान किया। योग की समस्‍त क्रियायें और नवधा, भक्ति की उपासना खोजी जी ने इन्‍हीं महात्‍मा से प्राप्‍त की। खोजी जी बड़े ही गुरु भक्‍त थे। करीब आठ बरस तक वे गुरुजी की सेवा में रहे। उनकी सेवा-सुश्रूषा से महात्‍मा माधवदास बड़े प्रसन्‍न रहते और उन्‍हें अपने शिष्‍यों में सर्वश्रेष्‍ठ समझते थे।

महात्‍मा माधवदासजी की कुटी के आगे आम्र का एक विशाल वृक्ष था। उसी के नीचे बैठकर वे अपने शिष्‍य-वर्गों को दर्शन और उपदेश दिया करते थे। कथा-प्रसंग से एक बाद महात्‍मा माधवदासजी ने अपने स्‍वर्गवास के विषय में कहा कि जिस समय मैं शरीर बंधन से मुक्‍त होऊंगा, उस समय आकाश से पुष्‍प-वृष्टि होगी, नगाड़े बजेंगे और सफेद काग भी दीख पड़ेगा। कुछ दिनों के बाद उसी आम्र वृक्ष के नीचे महात्‍माजी का शरीरान्‍त हो गया। उस समय तो पुष्‍प-वृष्टि ही हुई न कोई वाद्य ही बजा और न श्‍वेत काग ही दीख पड़ा। समस्‍त शिष्‍यगण उनकी और्ध्‍व-दैहिक क्रिया के लिए एकत्र हुए। किसी ने कहा कि महात्‍माजी ने अपने शरीरान्‍त के समय जो चिन्‍ह दीख पड़न को कहा था, उसमें कोई भी नहीं दीखता। इससे महात्‍माजी का वाक्‍य मिथ्‍या हो यगा आदि। यह सुनकर पीछे से आये हुए खोजी जी को दु:ख हुआ। इसका कारण जानने के लिए उन्‍होंने समाधि लगाई तो मालूम हुआ अन्‍त समय में महात्‍माजी का ध्‍यान उसी आम्र में एक पके फल की ओ गया और उन्‍हें उक्‍त फल ग्रहण करने की कामना हो गई। जिससे शरीर छूटते ही उनकी आत्‍मा उस फल में चली गई। भगवान् ने गीता में कहा है-

यं यं वापिस्‍मरन् भावं त्‍यजत्‍यन्‍ते कलेवरम्। 

तं तमेवैति कौन्‍तेय सदा तद्भावभावित:।।

अर्थात, अन्‍तकाल में जीव जो भावना रखता है उसी रूप को प्राप्‍त हो जाता है। 

खोजी जी ने समस्‍त शिष्‍यवर्गों से कहा कि महात्‍मा जी का भाव वृक्ष के पके फल में चले जाने से उनके बताए चिन्‍ह नहीं दीखते । ऐसा कहकर उन्‍होंने आम्र के उस पके फल को मंगाया और खोलकर देखा तो उसमें एक कीट मौजूद था। बाहर निकालते ही कीट मर गया और उस समय पुष्‍प-वृष्टि और वाद्य ध्‍वनी हुई, श्‍वेत काग भी दिख पड़े। 

भक्‍तवर खोजीजी की इस समुचित खोज से शिष्‍यगण गदगद हो गए और सबने एक स्‍वर में उन्‍हें खोजी (यानी खोज करने वाला) नाम से पुकारा। तभी से चतुर्भुज जी का नाम "खोजीजी" प्रसिद्ध हो गया। यह नाम सर्वत्र प्रचलित है।

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