मुण्डकोपनिषद में पारीक शब्द की व्युत्पत्ति-परक निम्न श्लोक उल्लेखनीय है-
परीक्ष्य लोकानकर्मचितानब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन।
तद्विज्ञानार्थ स गुरूमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोतियं ब्रह्मर्निष्ठम्।।
मुण्डकोपनिषद् मुण्डक 1 /2 / 12
अर्थात अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को पहले बतलाए हुए सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस लोक और परलोक के समस्त सांसारिक सुखों की भली-भांति परीक्षा करके अर्थात विवेकपूर्ण उनकी अनित्यता और दु:ख-रूपता को समझ कर सब प्रकार के भोगों से सर्वथा विरक्त हो जाना चाहिए। यह निश्चय कर लेना चाहिए कर्तापन के अभिमानपूर्वक सकाम भाव से किए जाने वाले कर्म अनित्य फल को देने वाले स्वयं भी अनित्य हैं। अत: जो सर्वथा अकृत है अर्थात क्रियासाध्य नहीं है, ऐसे नित्य परमेश्वर के प्राप्ति वे नहीं करा सकते। यह सोचकर जिज्ञासू को परमात्मा का वास्तविक तत्व-ज्ञान प्राप्त करने के लिये हाथ में समिधा लेकर श्रद्धा और विनय-भाव सहित ऐसे सदगुरू की शरण में जाना चाहिए, जो वेदों के रहस्य को भली-भांति जानते हों और परब्रह्म परमात्मा में स्थित हों।
इन 'परीक्षित', 'पारीक्षित' एवं 'पारीक्ष' शब्दों में 'पारीक्ष' शब्द ही अधिक प्रचलित होता गया तथा प्रथम दो शब्द व्यवहार में नहीं रहे, जिसके कारणों में बोलने की सुविधा मुख्य है। यहां यह उल्लेखनीय है कि किसी भी भाषा या बोली में शब्दों के उच्चारण में सुविधा का तत्व सर्वाधिक प्रभाव डालता है। इसी कारण कालान्तर में किसी शब्द में आये परिवर्तन को 'प्रयत्न लाधव' की स्वाभाविक भाषागत प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। इसी क्रम में 'पारीक्ष' शब्द का तद्भव रूप 'पारीक' हो जाना एक सामान्य बात है।
पारीक्ष शब्द की निष्पत्ति
"पारीक्ष ब्राह्मणोत्पत्ति" पुस्तक में पारीक शब्द की निम्नानुसार निष्पत्ति बताई गई है- ईक्षणमिति विग्रहे ईक्ष- दर्शने इति धातो:। (गुरोश्चहल: 3 / 3 / 103)। इति स्त्रिया मकार प्रत्यते- आजादित्वाट्ठापि- ईक्षा शब्दों निष्पन्न:। ततश्च परित: ईक्ष- परीक्षा धर्माधर्मयोर्यथार्थ विचार: परीक्षा यस्यास्तीति विग्रहे- (अण् च 5 / 2 / 103) इत्यणि तत आदिपदवृद्धौ 'पारीक्ष' शब्दो निष्पन्न:।
'पारीक्ष संहिता' नामक ग्रन्थ में पारीक्ष शब्द की निम्न व्युत्पत्ति बताई गई है-
पारीक्ष- परीक्षायस्यातीति परीक्षा शब्दात् (अणच् 5 / 2 / 103) इत्याणि आदि पदवृद्धौ (यस्यति च. 6 / 4/ 148) इत्याकार लोपे पारीक्ष शब्दोनिष्पन्न:। तेन च परीक्षा करणयोग्यतावत्यं ज्ञायते। एवं परीक्षित शब्दार्थ इत्थं ज्ञेय:: परीक्षित: परीक्षां इति प्राप्त: परीक्षित: तत: परीक्षित एव पारीक्षित: (स्वार्थे अण्)।
आचार्य चरक द्वारा सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'चरक संहिता' में लगभग अढाई हजार वर्ष पूर्व पारीक्ष जाति का वर्णन आया है, मुद्रल के वचनानुसार जो (ब्राह्मण) लोक-परलोक के तत्व-चिन्तन के मार्ग में स्वयं की परीक्षा में अग्रणी रहते हैं, उन्हें पारीक्ष कहा गया है।
पारीक्षस्तत्परीच्याग्रे मुद्गलो वाक्यमब्रवीत्।
चरक-सूत्र 25 महाभारत में भी पूर्व समय में व्यास जी की आज्ञा से शिष्यों व पराशर वंशजों के तप:स्थल पर्वत-शिखर से उतर कर जन-संकुल भूमि पर जाकर वेद और वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के उल्लेख में 'पारीक्ष' शब्द का स्पष्ट निहितार्थ विदित होता है-
नापरीक्षितचारित्रे विद्या देया कथंचन।
यथा हि कनकं शुद्धं तापच्छेदनिकर्षणै:।।46।।
परीक्षेत तथा शिष्यानीक्षेत् कुलगुणदिभि:।
न नियोज्याश्च व: शिष्या अनियोगे महाभये।।47।।
महाभारत शान्तिपर्व 327/ 46/ 47
अर्थात् शिष्य के चरित्र की बिना परीक्षा लिये कभी भी शिक्षा नहीं देनी चाहिये। जैसे स्वर्ण की परीक्षा तपाने, काटने और कसौटी पर घिसने से होती है, उसी प्रकार शिष्यों की परीक्षा भी सदाचरण, उत्तम गुणों और उत्तम वंश से करनी चाहिये। आप लोगों को अपने शिष्यों को किसी अनुचित या महा भयानक कार्य में कभी न लगाना चाहिये।
महर्षि पराशर के वंशज न केवल अपने शिष्यों के वेद-वेदांग के पठन और सदाचरण आदि की परीक्षा करते थे, अपितु स्वयं का भी सदैव उक्त कसौटियों पर परखते रहते थे। इस कारण वे पारीक्ष नाम से सर्वत्र लोकप्रिय हुए, जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर 'पारीख' एवं 'पारीक' हो गया। अतएव वेदोक्त धर्म और कर्म की परीक्षा न्यायसंगत युक्तियों से विचार करते हुए स्वात्मा के कल्याण के प्रयोजन को पूर्ण करने में जो सदा तत्पर रहता हो, विद्वान उसको 'पारीक्ष' अथवा 'पारीक' कहते हैं।
व्यास पुरूषोत्तम जी शास्त्री (मथुरा) द्वारा 'पारीक' शब्द को निम्नानुसार परिभाषित किया गया है-
वैदस्यसरहस्थस्यविचारों मुनिर्भिस्मृत:।
परीक्षातेन युक्तास्ते 'पारीक्षा:' ब्राह्मणा: स्मृता:।।
अर्थात कर्म, ज्ञान और उपासना काण्ड युक्त वेद तथा व्याकरण, निरूक्त, छन्द, कल्प, शिक्षा और ज्योतिष- इन वेदांगों को जो ब्राह्मण भली-भांति पढ़-लिखकर उनके सिद्धांतों को अपने विचार द्वारा निर्णय करके जनता को समझा सके, उसे पारीक्ष ब्राह्मण कहते हैं।
इस प्रकार "पारीक्ष" शब्द से पारीक शब्द की व्यूत्पत्ति अधिक व्यावहारिक, विश्वसनीय एवं समीचीन ज्ञात होती है।
'पाराशरिक' शब्द से 'पारीक' शब्द का उद्भव
महर्षि पराशर के वंशज 'पारीक' जाति के रूप में प्रसिद्ध हुए, जैसा कि उल्लेख किया गया है। इसी कारण 'पारीक' शब्द की व्युत्पत्ति 'पराशर' शब्द से ही मानने का विभिन्न विद्वानों का मत स्वाभाविक एवं उचित प्रतीत होता है। इन विद्वानों की मान्यता है कि 'पाराशरिक' शब्द का तद्भव रूप 'पाराहरिक' हुआ, क्योंकि कई स्थानों पर 'श' व 'स' को 'ह' के रूप में उच्चारण करने की प्रवृत्ति है, जैसे सड़क को हड़क आदि। 'पाराहरिक' में से कालान्तर में प्रयत्न लाघव भाषागत प्रक्रिया के अधीन 'राह' का लोप होकर उसके स्थान पर 'पारीक' शब्द रह गया, जिसमें 'रि' की छोटी मात्रा 'री' में परिवर्तित हो गई।
ब्रह्मज्ञान एवं आध्यात्म मार्ग के साधकों तथा अन्वेषकों को लोक में प्राचीन काल से ही 'पारीक' नाम से जाना जाता था। सन्द दादू दयाल जी की निम्न वाणी से इस तथ्य की पुष्टि होती है-
केते पारीक पचि मुए, कीमत कही न जाय।
दादू सब हैरान हैं, गूंगे का गुड़ खाय।।
ब्रह्मदत्त से पारीकों की वंश परम्परा की मान्यता
कृष्ण द्वैपायन- पुत्र शुकदेव-महाभारत, श्रीमद्भागवत एवं अनेकानेक पुराणें में शुकदेव को कृष्ण द्वैपायन का पुत्र बताया गया है। श्रीमद्भागवत के प्रवचन - कर्ता शुकदेव ने जन्म लेते ही वैराग्य धारण कर लिया था- अत: इन शुकदेवजी के आगे वंश वृद्धि नहीं हुई। श्रीमद्भागवत में (छाया) शुक के 4 पुत्र एवं एक पुत्री कीर्तिगत (कहीं-कहीं पुत्रों की संख्या 5, 12 तक भी बताई गई है) होने का उल्लेख है। कृष्ण द्वैपायन एवं उनके पुत्र शुकदेव महाभारत काल में हुए हैं, अत: इस काल-गणना के आधार पर कृष्ण द्वैपायन मैत्रावरूणि वसिष्ठ-पौत्र पराशर के पुत्र एवं पौत्र स्थापित नहीं होते हैं, जैसा कि पूर्व में विवेचन किया गया है।
शुकदेव एवं ब्रह्मदत्त
पौराणिक ग्रंथों में एकाधिक ब्रह्मदत्त के जीवन-वृत्त के कथानक आते हैं। पौराणिक कोश के अनुसार
ब्रह्मदत्त- "(1)चुलिय ऋषि के पुत्र तथा कांपिल्ल के राजा जिन्हें कुशनाभ की 100 कुबड़ी पुत्रियां ब्याही थीं- ह्वेनसांग ने इन्हें कुसुमपुर का राजा लिखा है। (2) नीप तथा शुक-पुत्र कुत्वी का पुत्र एक योगी जिसकी पत्नी गो तथा पुत्र विश्वकसेन था(भाग.9.21.25;मत्स्य. 15,10)। यह शाल्व का राजा था{भाग. 10.52.11(8)} जिसका वध श्रीकृष्ण ने किया था(भाग. 10.52{56(5)8}। (3) अणुह तथा कीर्तीमती का पुत्र(ब्रह्मां. 3.8.94; 10.82;74.268; मत्स्य. 70.86; 73.21;19.180; विष्णु. 4.19.45-6)। (4) पांचाल नरेश विभ्राज का पुत्र, जो पूर्व जन्म में कौशिक का एक पितृवर्ती था। देवल की पुत्री सन्नति इसकी पत्नी थी। ... यह ब्रह्मदत्त विष्वकसेन का राज्याभिषेक कर स्वयं एक सिद्ध हो गए (मत्स्य. 20.23.-38;21.16, 24-35)"
पौराणिक कोश के अनुसार चार ब्रह्मदत्त हुए हैं जिनमें प्रथम ब्रह्मदत्त जो चुलिय ऋषि के पुत्र बताए गए हैं, का विवरण वाल्मीकी रामायण (बालकाण्ड के 32, 33 सर्ग) में भी मिलता है।
पुराणों में ब्रह्मदत्त को कहीं नीप का कहीं अणुह का तथा कहीं पांचाल नरेश विभ्राज का पुत्र बताया गया है।
ब्रह्मदत्त से पारीक वंश की वृद्धि की जो उपर्युक्त मान्यता है वह युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होती। प्रथमत: मैत्रावरूणी वसिष्ठ- पौत्र पराशर के कृष्ण द्वैपायन एवं उनके पुत्र शुकदेव क्रमश: पुत्र एवं पौत्र सिद्ध नहीं होते द्वितीय, जब व्यक्ति के स्वयं के ही कई संताने हो तो वह अपने दौहित्र से क्यों अपने वंश की वृद्धि करवायेगा ?
अत: उपर्युक्त विवेचन के आधार पर संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पारीक ब्राह्मण त्रेताकालीन मैत्रावरूणि वसिष्ठ के पौत्र शाक्त्य पराशर के वंशज हैं। द्वापर के अन्तिम चरण में आविर्भूत: कृष्ण द्वैपायन के पिता पराशर उक्त शाक्त्य पराशर से भिन्न हैं। इस सम्बन्ध में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने का मुख्य कारण वेदव्यास उपाधि का प्रयोग तथा पराशर नाम के एक से अधिक ऋषियों का होना है, जैसा कि विवेचन किया गया है।
विष्णु के आगामी अवतार का पराशर वंश में जन्म
पौराणिक कोश में विभिन्न पुराणों के उद्धरणों के आधार पर कल्कि अवतार के विषय में निम्न विवरणिया गया है-
"कल्कि- पु.(सं), विष्णु के दसवें अवतार का (वायु पुराण व ब्रह्माण्ड पुराण में इनका नाम विष्णु यश) नाम जो विष्णु यश की पत्नी सुमति के गर्भ से जन्म लेंगे। कलियुग के अन्त में यह अवतार होगा। कलियुग के म्लेच्छ, पापी, लोभी राजाओं का संहार करेंगे, सबको अपने-अपने धर्म में स्थापित करेंगे और तब सतयुग प्रारम्भ होगा। ये ब्रह्माण्ड पुराण तथा वायु पुराण के अनुसार पाराशर्य= पराशर पुत्र विष्णु के दसवें अवतार माने गए हैं। इनके पुरोहित होंगे याज्ञवल्क्य। लक्ष्मी पद्मा के रूप में अवतार लेंगी और कल्कि से उनका ब्याह होगा। पद्मा से ब्याह करके विश्वकर्मा के बनाए शम्भल (मुरादाबाद के निकट) में निवास करेंगे। इनके घोड़े का नाम देवदत्त होगा, जिसपर सवार हो, सद्धर्म परायण सदाचार सम्पन्न द्विजों की सेना के साथ विविध देशों में संचार करते हुये अनाचार का नाश कर धर्म की स्थापना करेंगे। (भाग 1.3.25; 12.2.18-23; मत्स्य 273.27; 285.7; विष्णु 4.24.98-101; ब्रह्माण्ड 3.73.104-24; वायु 98.104-17)। ये म्लेच्छ और बौद्धों का दमन कर कुथोदरी नाम की राक्षसी का वध करेंगे। तदन्तर भल्लाट नगर में इनका शैयाकरण, प्रयाति और राजा शशिध्वज के साथ युद्ध होगा। शशिध्वज की मुक्ति होगी, इसके बाद यज्ञ का अनुष्ठान और सत्ययुग का प्रारम्भ होगा। इस प्रकार अपने सब काम करने के पश्चात कल्कि गंगा-यमुना संगम पर शरीर त्याग कर वैकुण्ठ जायेंगे(कल्कि 3 अध्याय 1 से 19 तक; ब्रह्माण्ड 3.74.206, 4.29.133; मत्स्य 47.248.62)'।"
ब्रह्माण्ड पुराण में यह उल्लेख किया गया है कि इस युग की सन्ध्या की समाप्ति पर पराशर के वंश में विष्णुयश नामक महाप्रतापवान कल्कि अवतार होगा। यह दसवां अवतार होगा, जिसके पुरोहित याज्ञवल्क्य होंगे, जिनकी शक्तिशाली सेना हाथियों, अश्वों और रथों से परिपूर्ण होगी-
अस्मिन्नेव युगे क्षीणे संध्याशिष्टे भविष्यति।
कल्किर्विष्णुयशा नाम पाराशर्य: प्रतापवान्।।104
।। दशमो भाव्यसंभातो याज्ञवल्क्य पुरस्सर:।
अनुकर्षन्स वै सेनां हस्त्यश्वरथ संकुलाम्।।105।।
ब्रह्माण्ड पु. 2(उपो. पाद)/3 /73/104-05
वायु पुराण में भी उपर्युक्त दोनों श्लोकों की लगभग समान भाषा को मात्र श्लोकांश व शब्दावली को ऊपर-नीचे क्रम-परिवर्तन से इस प्रकार व्यक्त किया गया है-
कल्किर्विष्णुयशा नाम पाराशर्य: प्रतापवान्।
दशमोभाव्यसभूतो याज्ञवल्क्य पुरस्सर:।।104।।
अनुकर्षन सर्वसेनां हस्त्यश्वरथ संकुलाम्।
प्रगृहीतायुधैर्विप्रैवृत्त: शतसहस्रश:।।105।।
वायु. पु. 98/104-05 मत्स्य पुराण में भी दशम् कल्कि अवतार पराशर पुत्र अथवा वंशज का (पाराशर्य) होना वर्णित है।
तस्मिन्नेव युगे क्षीणे संध्याशिष्टे भविष्यति।
कल्कि तु विष्णुयशस: पाराशर्य पुर: सर:।
दशमोभाव्यसंभूतों याज्ञवल्क्य पुर: सर:।।248।।
सर्वाश्च भूता स्तिमितान् पाषण्डाश्चैव सर्वश:।
प्रगृहीतायुधैर्विप्रैर्वृत्त: शतसहस्रश:।।249।।
नि:शेष: क्षुद्रराज्ञस्तु तदा स तु करिष्यति।
ब्रह्मद्विष: सपत्नांस्तु संहृत्यैव व तद्वपु:।।250।।
अष्टाविंशे स्थित: कल्किश्चरितार्थ: ससैनिक:।
शूद्रान संशोधयित्वा तु समुद्रान्तं च वै स्वयम्।।251।।
प्रवृत्तचक्रो बलवान संहारं तु करिष्यति।
उत्सादर्यित्वा वृषलान् प्रायश्तानधार्मिकान्।।252।।
ततस्तदा स वै कल्किश्चरितार्थ: ससैनिक:।
प्रजास्तं साधयित्वा तु समृद्धास्तेन वै स्वयम्।।253।।
अकस्मात् कोपितान्योsन्यं भविष्यन्तीह मोहिता:।
क्षपयित्वा तु तेsन्योsन्यं भाविनार्थेन न चोदिता:।।254।।
तत: काले व्यतीते तु स देवोsन्तरधीयत।
मत्स्य पु. 47/248'254 1/2
अर्थात इस युग की समाप्ति के समय जब संध्या मात्र अवशिष्ट रह जाएगी, विष्णुयशा के पुत्र-रूप में कल्कि का अवतार होगा। ये भावी दसवें अवतार पराशर-पुत्र अर्थात पराशर वंशज होंगे और याज्ञवल्क्य पुरोहित का कार्यभार संभालेंगे। उस समय भगवान कल्कि आयुधधारी सैकड़ों-हजारों विप्रों को साथ लेकर चारों ओर से धर्मविमुख जीवों, पाखण्डों और क्षुद्रमना (शूद्रवंशी) राजाओं का सम्पूर्ण रूप से विनाश कर डालेंगे, क्योंकि ब्रह्मद्वेषी क्षत्रियों का संहार करनेके हेतु ही कल्कि अवतार हैं। इस अट्ठाइसवें युग में भगवान कल्कि सेना सहित सफल मनोरथ हो, विराजमान रहेंगे।