आमेर के महाराजा भारमल ने परम वैष्णव पुरोहित पर्वत जी की ईश्वर भक्ति, विद्वता एवं श्रद्धास्पद व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धानत होकर उन्हें राजगुरु का सम्मान दिया और 6000 बीघा उपजाऊ जमीन वर्तमान जयपुर नगर से 15 किलोमीटर पश्चिम में कर विहीन जागीर भेंट की जहां उपयुक्त स्थान पर पुरोहित पर्वतजी ने गांव बसाया। रमणीक वातावरण, अनेक तालाबों, नाडि़यों, जलाशयों से सुशोभित सर्व भांति के अन्न, द्विदल, तिलहन, कपास आदि की कृषि सम्पन्न और असंख्य आम्र वृक्षों से आच्छादित उक्त ग्राम का नाम "सरसी" रखा जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर वर्तमान में सिंरसी ग्राम कहलाता है। ग्राम "सिरसी" निम्न श्लोक के अनूरूप अपने मूल नाम सरसी की सार्थकता सिद्ध करता है:-
"सरसी च तत्परिसरे sच्छजला
फलभार नम्र आम्रतक रम्यतटा"
अर्थात स्वच्छ जल वाली, फलों के भार से झुके हुए आम्र वृक्षों से रमणीय तट वाली यह सरसी सुशोभित हो रही है।
सोलहवीं शताब्दी के आसपास आमेर के महाराजा पृथ्वीराज ने वैष्णव सम्प्रदाय को छोड़ नाथ सम्प्रदाय में अभिशिक्त होकर नाथ को गुरु बना लिया और उसकी प्रतिशोधयुक्त प्रभावना से अन्य धर्मावलम्बियों का आमेर में अपमान होने लगता तो समस्त वैष्णव धर्माचार्य वहां से पलायन कर गए और आमेर से प्राय: सभी वैष्णव गद्दियां उठ गई। उस अवांछनीय स्थिति एवं भावी अकल्याण के निवारणार्थ स्वामी रामानन्दाचार्य के प्रथम शिष्य कृष्णदास पयहारी जी महाराज आमेर पधारे और पुरोहित पर्वत जी के माध्यम से उनकी शिष्या वैष्णव भक्तिमती महारानी बालाबाई के अतिथि बनकर राजमहल के ही एक भाग में पुरोहित पर्वत जी के आवास कक्ष के निकट अपनी धूणी रमा तपस्या करने लगे। शनै: शनै: महर्षि पयहारी जी ने अपनी विद्वता एवं तपोबल से नाथ गुरु के प्रतिशोधपूर्ण चमत्कारों को निष्प्रभावी कर उसे जयपुर राज्य की सीमा छोड़कर पलायन करने पर विवश कर दिया और महाराज पृथ्वीराज को पुन: वैष्णव धर्म में दीक्षित कर आमेर छोड़कर गए धर्माचार्यों को ससम्मान वापस बुलाकर समस्त वैष्णव गद्दियों को पूर्ववत आमेर में पुन: प्रतिष्ठापित किया।
उक्त इतिहास प्रसिद्ध कार्यवाही में महाराजा पृथ्वीराज एवं नाथ गुरु के कोप से निर्भीक रहकर भगवद् भक्त पुरोहित पर्वत जी ने आदि से अंत तक पयहारी जी महाराज की तन मन से सेवा एवं सहायता की जिससे वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। अपने लक्ष्य में पूर्णरूपेण सफलता प्राप्त कर पयहारी जी जब अमेर से वापस जाने लगे तो, महाराजा पृथ्वीराज की प्रार्थना पर आमेर राज्य को मुगल बादशाहों के कुचक्री अतिक्रमणों से बचाने तथा समृद्धि एवं स्थायित्व प्रदान करने के लिए वरदान रूप में श्री नृसिंह देव की स्वर्ण मंडित निज सेवा की सालिग्राम मूर्ति चील के टीले पर (जहां अब जयगढ़ का किला बना हुआ है) महाराजा को सौंपते हुए आदेश दिया कि मूर्ति को राजमहल में उसी कक्ष में स्थापित किया जाय जहां पयहारी जी रहे थे। कभी किसी परिस्थिति में मूर्ति को देली (मंदिर कक्ष की देहरी) से बाहर न निकाली जावे और श्री नृसिंह मूर्ति की सेवा पूजा पर्वत जी एवं उनके वंशजों से ही कराई जावे। तभी से जयपुर में यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि "जब तक नरसिंह देली में, तब राज हथेली में" इसे संयोग कहा जाये या भगवान लक्ष्मी नृसिंह द्वारा अपने भक्त पयहारी जी के वचनों को सत्य करना, कि देश की स्वतंत्रता के बाद गठित राजस्थान प्रदेश में जयपुर राज्य का विलीनीकरण तो होना ही था, एक पागल सा दर्शनार्थी सोने के लालच में नृसिंह जी की सालिग्राम मूर्ति को मन्दिर से चुरा ले गया। अल्प समय में ही चोर भी पकड़ा गया, मूर्ति भी वापस लाकर पुन: प्रतिष्ठा कर दी गई। परन्तु जयपुर राज्य को कछावा राजवंश की हथेली से बाहर जाने से पूर्व ही नृसिंह मूर्ति ही देली (देहरी) बाहर चली गई और कुछ समय बाद पर्वतवंशीय सिरसी के पारीकों ने भी री नृसिंह जी की सेवा पूजा सरकार को संभला दी।
गुरु पयहारी जी महाराज के आदेश के सम्मुख नतमस्तक होकर तपोमूर्त बाल ब्रह्मचारी पुरोहित पर्वत जी ने श्री नृसिंह मूर्ति की सेवा पूजार्थ प्रौढ़ावस्था में विवाह किया जिनसे तीन पुत्र- गोपाल जी, परसराम जी, खेमू जी उत्पन्न हुए जिनके नाम संवत 1600 में सांगानेर में निर्धारित पारीक जातीय सरखत(सामाजिक प्रबन्ध पत्र) में हस्ताक्षर करने वालों में अंकित है। उनके एक पुत्री हुई, जो अपने स्वर्गीय पति के साथ सती होने के कारण उनके भातृ वंशजों में अब तक सम्मान्य है। बक्षा जी, राघव जी, किशोर जी एवं उनके वंशजों ने अपने पूर्वजों की भक्ति परम्परा को सुचारू रखते हुए नृसिंह जी की सेवा पूजा करते रहने के अतिरिक्त समय-समय पर सांगानेर, सांभर(देवयानी), पुष्कर, आमरे(कुण्डाग्राम), जयपुर आदि अनेक स्थानों पर मन्दिर, कुण्ड, कूप, जलाशय, विश्रामगृह आदि जन हितार्थ बनवाये और अपने ग्राम सिरसी में कुण्ड, धर्मशाला, पीने व सिंचाई के अनेक कुंए, अनेक छोटे व पांच बड़े मंदिरों का निर्माण किया जिनमें से 17वीं शताब्दी में निर्मित श्री लक्ष्मीनारायण जी का मंदिर तो अत्यंत कलात्मक भव्य एवं दर्शनीय है।
भक्तशिरोमणि पुरोहित पर्वत जी, सुप्रसिद्ध एवं सर्व प्रमाणिक भक्त चरित ग्रंथ "भक्तमाल" के रचयिता महात्मा नाभादास जी के गुरु, अग्रजी कीष जी के गुरुभाई थे और प्रतिदिन वैष्णव गोष्ठी नारायण के ग्रहण में उनके साथ ही संयुक्त होते थे।
आमेर राज राजगुरु भक्तिमति महारानी बालाबाई के भक्ति प्रणेता गुरुवर्य पुरोहित पर्वत जी वैष्णव-भक्त-समाज एवं पारीक समाज में उस युग के सर्वोच्च श्रद्धास्पद महापुरुषों में माने जाने लगे।
जयपुर के भारत प्रसिद्ध गलता जी में अल्प सी चढ़ाई पर पहाड़ी में स्थित पयहारी जी महाराज की धूणी (तपस्थली) जिसका बाद में उनकी पावन स्मृति के रूप में पक्का भवन निर्माण कर दिया गया था और जो बहुत अच्छी हालत में अभी विद्यमान है, को अप्रत्यक्ष रूप में पुरोहित पर्वत जी एवं उनके अन्य श्रद्धेय भक्तों की भी स्मृति स्थली ही है, क्योंकि गुरु सेवार्थ एवं आराध्य देव श्री नृसिंह जी महाराज की सालिग्राम मूर्ति (पयहारी जी महाराज की निजी सेवा) की पूजा टहलवाई हेतु पर्वत जी तब अधिकांश समय वहां पयहारी जी महाराज के पास ही रहते थे।
राजगुरु पर्वत जी पुरोहित के वंशज आमेर-जयपुर राज्य में अनेकानेक गांवों के जागीरदार, सामन्त, आमात्य, राजदरबारी, सेनापति (फौजदार), पारीक पंचायत के सम्मान्य पंच, विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार, जयपुर, किशनगढ़, शाहपुरा, उदयपुर रियासतों तथा राजस्थान प्रदेश प्रशासन में भी उच्चातिउच्च सरकारी अर्द्धसरकारी व संस्थागत पदों पर रहे जहां, राज संचालन एवं प्रशासन में ईमानदारी व प्रशासनिक कुशलता में ख्याति प्राप्त कर जयपुर राज्य एवं पारकी जाति के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वर्तमान में भी सिरसी के पारीक डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पंच, सरपंच, सामाजिक व शैक्षणिक तथा सरकारी व अर्द्धसरकारी अनेक पदों पर कार्यरत हैं।