भगवान भक्तों के बस में होते हैं। भक्त की इच्छा हो और भगवान उसकी मनोकामना पूर्ण न करें, यह संभव नहीं। टौंक जिलान्तर्गत निवाई में संतदास जी जी उपाध्याय (रोजड़ा) पारीक थे एक ऐसे महान संत हुए हैं, जो भगवान गोपीनाथ जी के अनन्य भक्त थे, उनके द्वारा पूजित गोपीनाथ जी का मंदिर आज भी निवाई में उनकी यश कीर्ति बिखेरता हुआ, सामान्य जन को, प्रभु-प्रेम की ओर आकर्षित कर भक्ति भाव की सुमधुर छटा चहुं और फैला रहा है। दिनांक 29 मई को नई (बांसखोह, जिला जयपुर) में पारीक जाति के बालकों का समूहिक यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हुआ था, उसमें आपके वंशज भी आये थे, उन्होंन लेखक को जानकारी कराई कि संतदास जी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी किन्तु वे अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ न होने के बावजूद प्रभू का नित नया सुस्वाद भोजन कराते तथा आगत संत महात्माओं को प्रसाद वितरित करते। एक बार जब वे जगन्नाथपुरी गये तो आपने वहां भगवान जगन्नाथ जी के छप्पन भोग की झांकी के दर्शन किये तथा मन में संकल्प किया कि मैं भी अपने भगवान गोपीनाथ जी के ऐसा ही भोग लगाऊंगा। अपने भगवान जगन्नाथ जी को भी उक्त अवसर पर पधारने का निमंत्रण मन ही मन दे दिया। निवाई आकर, आपने अपने सीमित साधनों से किसी प्रकार छप्पन भोग की व्यावस्था की और प्रभु को भोग लगाया। भगवान जगन्नाथ, स्वंय वहां पधारे तथा बड़ी रूचि के साथ भोजन किया। दूसरे और तीसरे रोज भी प्रभु ने वहां रहने की इच्छा प्रकट की किन्तु, अपने भक्त के सीमित साधन होने के कारण नवभक्तमान के अनुसार ''दूसरे दिन भी जगन्नाथ जी की उनकी मेहमानी मान कर छप्पन भोग ग्रहण करने की इच्छा जान उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। वे दूने उत्साह से जुट गये उसकी तैयारी में और जैसे-तैसे जगन्नाथ जी की इच्छा की पूर्ति की।
दूसरे दिन का भोग जगन्नाथ जी को और भी अच्छा लगा। वे एक दिन और रूक गये। संतदास जी और भी आनन्दोल्लासित हुए। आ हा! जगन्नाथ जी की मुझ पर इतनी कृपा! वे जगन्नाथपुरी के छप्पन भोग भूलकर मेरे छप्पन भोग आरोगने के लिए तीसरे दिन भी स्वेच्छा से रूक गये। उन्होंने तीसरे दिन भी किसी प्रकार मांग-जांचकर और अधिक उत्साह और प्रेम से छप्पन भोग की व्यावस्था की। तीसरे दिन भी जगन्नाथ जी की तृप्ति नहीं हुई, उनकी क्षुधा और अधिक बढ़ गयी। ज्यों ज्यों भक्त का उत्साह और प्रेम बढ़ता गया, त्यों-त्यों भगवान की क्षुधा बढ़ती गयी। भक्त की सेवा और भगवान की क्षुधा में होड़ बढ़ गई। जब संतदास जी के सीमित साधनों के कारण उसमें रोक लगने को हुई, तब जगन्नाथ जी ने अपनी कृपा का विस्तार किया। पुरी के राजा को स्वप्न देकर कहा- ''मैं आजकल संतदास जी के घर निवाई ग्राम में रह रहा हूं। कब तक रहूंगा ठीक नहीं। इसलिए यहां भी छप्पन भोग की व्यावस्था कर दो।'' आदेश पाते ही राजा ने सदा के लिए निवाई में छप्पन भोग की व्यवस्था कर दी। रूकावट दूर हुई। भक्त और भगवान के बीच यह लीला चलती रही। कब तक चलती रही भक्त जाने और भगवान। अपना तो अनुमान है कि लीला का अवसान नहीं। यह तब तक चलती रही होगी, जब तक संतदास जीवित रहे और उसके बाद भी चल रही होगी, क्योंकि इसका सम्बन्ध है भक्त और भगवान के बीच, जो निरन्तर वर्धनशील है। श्रीभगवान् की प्राणभरी प्रेम-सेवा की बलवती और निरन्तर बढ़ती हुई लालसा का नाम ही प्रेम है।
भक्त की प्रेम-सेवा की भूख जितनी बढ़ती है, उतनी ही भगवान् की भी उसकी प्रेम सेवा का सुख भोगने की भूख बढ़ती है। ''ऐसे भूखे साधक की आर्तिपूर्ण हृदय से की गयी सेवा से आर्तबन्धु श्री भगवान का हृदय, जिस प्रकार सुख से विगलित होता है। उस प्रकार स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करने वाले या केवल कर्तव्य बुद्धि से निष्काम कर्म करने वाले साधक की साधना से होता है। पद्यावली के एक श्लोक में प्रेमी साधक की इस भूख का वर्णन इस प्रकार है-
नानोपचारकृत - पूजन-मार्तबन्धो
प्रेम्णैव भक्तहृदयं सुख - विद्रुतं स्यात्।
यावत् क्षुदस्ति जठरे जरठा पिपासा
तावत् सुखाय भवति ननु भक्ष्यते यत् ।। (पद्यावली 10)
''श्लोक का भाव यह है कि उदर में जितनी भूख और प्यास होती है, उतना ही अन्न-जल तृप्तिकर होता है। उसी प्रकार भगवान् की प्रेम-भाव की भक्त में जितनी भूख होती है, उतनी ही वह तृप्तिकर होती है- केवल भक्त के लिए नहीं, भगवान् के लिए भी। भगवान आर्तबन्धु हैं। वे भक्त में प्रेम-सेवा की जितनी भूख देखते हैं, उतनी ही उनकी जठराग्नि जाग उठती है। वे भी उसकी प्रेम- सेवा ग्रहण करने को उतने ही अधिक व्यग्र हो उठते हैं और ग्रहण कर उनकी भी तृप्ति उतनी ही अधिक होती है।
''भगवान की जठराग्नि जगाने का एकमात्र उपाय है हृदय में उन्हें प्रसन्न करने की तीव्र लालसा लेकर श्रवण-कीर्तनादि शुद्धा-भक्ति के कार्यों में संलग्र रहना।'' संतदास जी के संबंध में प्राय: सभी भक्तमालों में इनक जीवन-दर्शन का उल्लेख है। नाभादास जी की भक्तमाल में जो छप्पय दिया गया है उसमें इन्हें भगवद् धर्म की सीमा (मर्यादा) बताया गया है तथा प्रभु को नित्य छप्पन भोग अर्पित करने का वर्णन है नाभादास जी की भक्तमाल में जो वर्णन किया गया है वह निम्न प्रकार है-
(621) छप्पय।(222)
बिमलानंद प्रबोध वंश, ''संतदास'' सींवा धरम।।
गोपीनाथ पद राग, भोग छप्पन भुंजाये।
पृथु पद्धति अनुसार देव दंपति दुलराये।।
भगवत भक्त समान, ठौर द्वै कौ बल गायौ ।
कवित सूर सों मिलत भेद कछु जात न पायौ।।
जन्म, कर्म, लीला, जुगति, रहसि, भक्ति भेदी मरम।
बिमलानंद, प्रबोध बंस, ''संतदास'' सींवा धरम।। ।।125।। (89)
(622) टीका। कवित्त।(221)
बसत ''निवाई'' , ग्राम, स्याम सों लगाई मति,
ऐसी मन आई, भोग छप्पन लगाये हैं।।
प्रीति की सचाई यह जग में दिखाई, सेवैं।
जगन्नाथदेव आप रूचि सौं जो पाये हैं।।
राजा कों सुपन दियौ, नाम लै प्रगट कियौ,
'' संत ही के गृह में तो जेंयों रिझाये हैं। ''
भक्ति के अधीन, सब जानत प्रवीण,
जन ऐसे हैं रंगीन, लाल ठौर ठौर गाये हैं ।। 497 ।। (132)
इसी प्रकार राघवदास जी की भक्तमाल में आपका वर्णन निम्न प्रकार किया गया है-
संतदास जी (मूल छप्पय)
संतदास जी सेव हरि, आय निवाई पाय है।।
विमलानन्द प्रबोध, वंश उपज्यो धर्म सींवा।
प्रभुजन जान समान, दोय बल गाये ग्रीवा।।
सूर सदृश्य कहि काव्य, मर्म कोउ नहिं पायो।
रहस्य भक्ति गुन रूप, जन्म कर्मादिक भायो।।
छप्पन भोग पद राग तैं, पृथु नाई दुलराय है।
संतदास की सेव हरि, आय निवाई पाय है।। ।। 266 ।।
''संतदास जी की सेवा के वश में होकर हरि निवाई ग्राम में आकर संतदास जी को लगाया हुआ भोग पाते थे वा संतदास जी के सेवा पाते थे। बिमलानंद जी प्रबोधन के वंश में संतदास जी भागवद्धर्म की मर्यादा रूप ही उत्पन्न हुए थे। भगवान् और भगवान के भक्तों को समान ही जानते थे और मानते थे। भागवत और भगवद्भक्त इन दोनों का समान बल प्रताप आपने अपने कंठ से गाया है। आपने सूरदास जी के समान ही अपने काव्य में कविता कही है। दोनों की कविता मिल जाती है तब यह भेद कोई नहीं पा सकता कि यह सूरदास जी की है या संतदास जी की। केवल पद्य में अंकित नाम से ही ज्ञात होता है कि यह उनकी है। अपनी रचनाओं में भक्ति का रहस्य, प्रभु के गुण, रूप, जन्म और कर्म लिखना ही आपको प्रिय लगता था। आप प्रभु के छप्पन भोग लगाते थे और विविध रागों के पद गाकर महाराज पृथु के समान प्रभु को लड़ाते थे।''
संतदास जी की पद्य टीका
इन्दव - वास निवाई सु गांव हरी मन, भोग छत्तीस प्रकार लगाये।
प्रीति सची जग माहिं दिखावत, सेव भलै जगनाथ जु पाये।।
भूप हि रैनि कह्मो जन नाम सु, संत हि के घर जैंवत भाये।
भक्ति अधीन प्रवीन महाजन लाल, रंगील जहां तहं गाये ।।364।।
''संतदास जी निवाई में निवास करते थे। आपका मन हरि चिन्तन में ही लगा रहता था। श्री जगन्नाथ जी जगत में सच्ची प्रीति को प्रकट करके सबको दिखा ही देते हैं। संतदास जी की सच्ची प्रीति थी, उनकी सेवा के वश में होकर जगन्नाथ जी भली प्रकार उनके यहां आकर जीमते थे व उनकी सेवा भली-भांति पाते थें। कुछ दिन में संतदास जी का धन समाप्त हो गया। तब प्रभु ने यह विचार कर कि भक्त का पण छप्पण भोग का है, वह मिथ्या नहीं होना चाहिए। इससे राजा को रात्रि के समय स्वप्न में भक्त का नाम कहकर कहा- ''मैं भक्त संतदास के घर छप्पन भोग का भोजन जीमता हूं। मुझे वह बहुत प्रिय लगता है। तुम मेरे भोग के लिए उसे धन और सामग्री दिया करो।'' रंगीले श्रीलाल जी भक्ति के ऐसे अधीन हैं। इस बात को सभी प्रवीण महापुरूष जानते हैं। कारण-प्रभु की भक्ति विवशता महापुरूषों ने जहां-तहां सद्ग्रन्थों में प्रकट रूप से गाई है। प्रभु कृपा से आपके वंशजों के लगभग 150 से अधिक परिवार हैं तथा निवाई में प्रभुदयाल जी, राधामोहन जी, मधुसुदन जी, लालचंद जी, शिवदयाल जी, मुरारी जी अादि निवास करते हैं। संतदास जी के वंशज श्री लालचंद जी के अनुसार मुगलों द्वारा मूर्ति खण्डन के भय से संतदास जी गोपीनाथ जी का विग्रह एवं चंदन की दो अन्य मूर्तियां, राधिका जी एवं रूकमिणी जी की लेकर उदयपुर से रवाना हो गये। (संतदास जी एवं उनके पूर्वज उरयपुर में ही रहते थे।) चित्ौड00 में मुगल सेना का डेरा था, अत: मूर्ति की रक्षार्थ आपने मूर्ति को एक दह (गहरे पानी का तालाब) में सुरक्षित रख दिया तथा मुगल सेना के जाने के बाद आपने मूर्ति को उक्त दह से निकालकर सुरक्षित स्थान पर ले जाने हेतु चित्तोड़ से प्रस्थान किया। दूनी में कुछ रोज विश्राम किया।
बाद में वर्तमान स्थान निवाई आये। उस समय यह स्थान निर्जन ही था। भक्ति के लिए उपयुक्त स्थान जानकर उन्होंने कुटिया बनाकर अपने इष्टदेव गोपीनाथ जी के साथ वहीं रहने लगे।
लालचंद जी के अनुसार गोपीनाथ जी के विग्रह के साथ चंदन की जो दो मूर्तियां, राधिकाजी एवं रूक्मिणी जी की थी। कालान्तर में काष्ठ की होने के कारण नष्ट हो गई तथा उनके स्थान पर अष्ट धातु की वर्तमान राधिका एवं रूक्मिणी जी के विग्रह स्थापित किये गये, जो वर्तमान में गोपीनाथ जी के साथ निज मंदिर में विराजमान है।
मुर्ति द्वारा छ: माह तक दुग्धपान
संतदास जी जगदीश जी की यात्रा हुतु जब गये उस समय यातायात के साधन नहीं थे। संतदास जी प्राय: पैदल ही तीर्थ यात्रा को जाते थे। संतदास जी को जगदीश जी के दर्शन करके आने में प्राय: 6 माह लग गये। अपनी यात्रा पर प्रस्थान करने से पूर्व आपने अपनी पत्नी श्रीमती हरचेली बाई को आग्रहपूर्वक यह निर्देश दिया कि वह गोपीनाथ जी को नियमित रूप से दोनो समय पय (दुग्ध) पान कराये जिससे कि गोपीनाथ जी दुर्बल न हो जावें।
संतदास जी के जाने के बाद भक्त विदुषी हरचेली बाई ने गोपीनाथ जी के समक्ष दूध रखा, गोपीनाथ जी ने दूध नहीं पीया। गोपीनाथ जी दूध नहीं पीवें तो फिर भला भक्त विदुषी हरचेली बाई कैसे कुछ खा पी सकती थी। परिणामत: उन्होंने भी अन्न व जल ग्रहण करना बंद कर दिया। सात दिन की अवधि बीत गई। भगवान अपने भक्त की भक्ति से प्रसन्न हुए और अगले दिन भगवान गोपीनाथ जी पयपान कर लिया। यह क्रम नियमित रूप से संतदास जी के जगदीश यात्रा से लौटते तक अबाध गति से चलता रहा। जब संतदास जी 6 मास बादे आये तो उन्होंने अपनी पत्नी से भगवान के लिए पूछा कि वह नियमित रूप से उन्हें पयपान कराती थी कि नहीं?
हरचेली बाई ने कहा कि वह नियमित रूप से भगवान को दूध पिलाती थी। प्रात: काल जब संतदास जी ने भगवान को भोग लगाया तो दूध भोग के बाद अपनी पत्नी को दिया। हरचेली बाई ने पूछा- गोपीनाथ जी ने दूध नहीं पीया? क्यों क्या बात है? संतदास जी ने कहा, बावली! कहीं मूर्ति भी दूध पीती है? हर चलेबाई ने कहा मुझसे तो रोज ही दूध पीते थे, दूध मुझे दो मैं पिलाती हुं और संतदास जी यह देखकर आश्चर्य मिश्रित रूप से भाव विह्वल हो गये जब भगवान गोपीनाथ जी गट-गट दूध पी लिया और प्रत्ययक्षत: दूध पीने का यह आ़खरी अवसर था।