जालिया (खेराड़) ग्राम के पुरोहित परिवार से संबंधित एक ऐतिहासिक दान पत्र.*1
पारीक पारिजात के 'प्रताप विशेषांक' में प्रकाशित 'ब्राह्मणों का वर्ग-विभाजन और पारीक जाति का नामकरण' शीर्षक लेख से मैंने ब्राह्मण जाति के अन्य वर्गों की भांति ही 'इस जाति के लिए प्रयुक्त पारीक शब्द के प्रदेश वाची होने एवं इस प्रकार के वर्गभेद के उद्भवकाल पर अपने कुछ विचार प्रस्तुत किए थे। पारीक जाति के पृथक अस्तित्व की आयु का पता लगाने के लिए इससे संबंधित जनप्रवाद, साहित्यिक और ऐतिहासिक सामग्री के परिप्रेक्ष्य में इस पर विचार विमर्श एवं अन्वेषण की आवश्यकता' है। पारीकों से सम्बन्धित जातिगत उल्लेख के रूप में कोई सामग्री हमें मिलती है तो वह अत्याधिक उपयोगी है ही, अन्यथा विभिन्न प्रान्तों अथवा भू भागों में बसे पारीक परिवारों से संबंधित ऐतिहासिक अथवा प्रशस्त्यात्मक सामग्री प्रकाशित करा कर हम इस दिशा में कुछ काम कर सकते हैं।
ब्राह्मण कुल में जन्म के कारण जन्मना एवं संस्कारगत कर्मणा मां सरस्वती की अर्चना करना तो हमारा पुनीत कर्म था ही, क्षात्र धर्म की परम्परा का निर्वाह करना भी हमनें अपना कर्तव्य माना था। समराङगण में क्षत्रियों के विमुख हो जाने अथवा असफल हो जाने पर ब्राह्मण हाथ में तलवार ले दस्युओं को ललकारता था। आर्य ऋषियों की इस परम्परा का निर्वार पारीक जाति करती रही है। यही अवस्था अन्य क्षेत्रों में भी रही है। व्यापार एवं कृषि कर्म में इन्हीं ने अपनी दक्षता का पिरचय दिया है। यदि यह जाति पराशर को अपना पूर्वज मानती है तो उसे पराशर ऋषि के आदर्शों को अपनाना चाहिए।
पर आज स्थिति सर्वथा विपरीत है। राष्ट्रचेता ब्राह्मण कर्तव्यच्युत हो गया है। कलम और बरछी को त्याग कर उसने कड़छी ग्रहण कर ली है। युग ने करवट बदली है। हमें भी अब जाग्रत हो जाना चाहिए। हमें अपने अतीत पर दृष्टिपात कर उससे अच्छाइयों को ग्रहण और बुराइयों का परित्याग करने के लिए सद उद्यत रहना चाहिए। अतीत के सम्यक् ज्ञान के लिए हमारे परिवारों से सम्बन्धित सामग्री का प्रकाश में आना आवश्यक है। 'पारीक पारिजात' के माध्यम से इस प्रकार की सामग्री को प्रकाशित कराकर जाति को लाभान्वित कराना प्रत्येक परिवार को अपना कर्तव्य समझना चाहिए।
प्रस्तुत लेख में इसी उद्देश्य को लेकर श्रीगणेश के रूप में हमारी जाति के मेवाड़ के खेराड़ प्रदेश में स्थित जालिया (जाल्या) ग्राम के पुरोहित परिवार से संबंधित एक ताम्र पत्र प्रकाशित कराया जा रहा है। ताम्रपत्र का एक ऐतिहासिक महत्व है। पारीक जाति का इतिहास लिखते समय इस प्रकार की सामग्री उपयोगी होगी।
इतिहास प्रसिद्ध महाराणा सांगा की मृत्यू के उपरान्त समस्त राजस्थान की राजनीतिक स्थिति डांवाडोल हो रही थी। ऐसी अवस्था में उनके पुत्र रत्नसिंह और महाराणा विक्रमादित्य क्रमश: सिंहासनारूढ़ हुए। महाराणा विक्रमादित्य के सिंहासनारूढ़ होने की तिथि कर्नल टाड के अनुसार संवत् 1591 वि. है परन्तु यह असंगत प्रतीत होती है। जाल्या ग्राम के पुरोहित परिवार से सम्बन्धित इस ताम्रपत्र से विक्रमादित्य के सिंहासनारूढ़ होने की तिथि निश्चित करने में सहायता मिलती है।
प्रस्तुत दानपात्र उक्त महाराणा विक्रमादित्य द्वारा उनके मांडलगढ़ में पाणिग्रहण संस्कार के समय पुरोहित जानाशंकर को रावत भवानीदास एवं हाडा अर्जुनदास की साक्षी में दिये गये जाल्या ग्राम से सम्बन्धित है। पुरोहित जानाशंकर के वंशधर आज भी उक्त जाल्या ग्राम में रहते हैं। उक्त ताम्रपत्र की तिथि वैशाख शुक्ला 11 संवत् 1589 दी गई है। उसमें विक्रमादित्य को महाराणा की उपाधि से विभूषित किया गया लिखा है। इससे स्पष्ट है कि सं. 1589 में वैशाख शुक्ला 11 से पूर्व ही यह महाराणा बन गये थे। कविराजा श्यामलदास ने इसका सर्वप्रथम उल्लेख अपने ग्रन्थ, 'वीर विनोद' में किया था। डॉ. गोरीशंकर हीराचंद ओझा ने भी 'राजपूताने का इतिहास' पुस्तक में इस ताम्रपत्र की ओर संकेत करते हुए उक्त महाराणा के राज्याभिषेक की तिथि सं. 1588 निश्चित की।
इस लेख से स्पष्ट है कि मांडलगढ़ (बूंदी) के हाडा नृपति की राजकुमारी मेवाड़ राजवंश के महाराणा विक्रमादित्य के पाणिग्रहण संस्कार में पौरोहित्य कर्म संपन्न कराने वाला जानाशंकर हाडाओं (चौहानों) का राजपुरोहित था। जन श्रुतियों के आधार पर वह विद्वान भी था। उसके पूर्वजों की परम्परा भी उसी के अनुरूप रही होगी। बूंदी के हाडाओं का पौरोहित्य पारीक पुरोहितों को प्राप्त था। इसी प्रकार खींची चौहानों का पौरोहित्य भी कांथडि़या पुरोहित करते थे। बूंदी और मांडलगढ़ के हाड़ा चौहान अजमेर के चौहानों की परम्परा में, जिसमें वीसलदेव, सोमेश्वर, पृथ्वीराज जैसे सम्राटों ने जन्म लिया था। अत: संभव है, चौहानों के पौरोहित्य कर्म का यह अधिकार परम्परा से ही पारीकों के इस कुल को प्राप्त राह हो।
यदि इन प्राचीन राजवंशों के पुरोहितों के परिवारों से इसी प्रकार की सामग्री प्रकाश में लायी जाये तो इतिहास की अनेक उलझी कडि़यां सुलझ सकती हैं। साथ ही पारीक जाति के इतिहास का भी प्रणयन करने में इनसे सहायता मिलेगी। उपर्युक्त ताम्र पत्र इस समय विक्टोरिया हॉल संग्रहालय, उदयपुर में संगृहित है। ताम्र पत्र का आकार 9 11/16" x 6 9/16" है। इसमें कुल 14 (शीर्षक सहित 16) पंक्तियां हैं। मूल ताम्रपत्र टूट जाने से उसे 10" x 7 10/16" आकार के एक अन्य ताम्र पत्र पर चिपका कर सुरक्षित किया गया है।
ताम्र पत्र का मूल पाठ निम्नलिखित है:-
1. श्री रामो जौसति
2. श्री गणेश (शोश) प्रसादातु(त) श्री ऐ (ए) कलंग (लिंग) प्र(सादातु)(त्)
3. सही
4. स्वस्त(स्ति) श्री महाराजा धी(धि)राज महाराण श्री विक्र__
5. मादित(त्य) आदेसातु(शात) प्रोहित(पुरोहित) जा(ज्ञा) ना सं(शं) कर हौ ग्रा-
6. म जालौ(ल्यो) माया करे अघाटी(ट)रामदतु(त्त) करी
7. दिधे(दीधौ) श्री ना(श) इ(य) ण प्रीति करे दिधौ(दीधौ) श्री राजामा-
8. ड(ण्ड) ल गढी पारणीवा(परणवा) पधारया बीडी(बाई) लखा पर
9. पबम(वा) आया तिरो(री) चौरी मघे(ध्ये) उदक किधो(कीध्ा) रा श्री(श्रा)
10. रावत भवानी दास जी हाडा आरजन विद(विदय) मान
11. सहस्रा(सहस्र रा) बहुभीख(र्मि:) सुधा भुक्ता रायभी(जभि) सगरा-
12. दिभी(दिभि):(ज) स्य जस(स्य) जदा भुमि(मि:) तस्या(स्य) तस्य तदा-फ---
13. ल(लं) सवदत(स्वदतां) परदत(तां) बा(वा) जो(यो) हरती(हरेत) वसु(वसुं)
14. वर्ष सहस्राणा(णि:) वीष्टा(विष्ठा) यां जाहीते(जायते) क्रमी(कृमि)?
15. संवतु(त) 1589, वषे(वर्षे) बो साख(वैशाख) सुदी।।
16. ली(लि) खतं प(पं) चोला महेस छौ(छै) ज(स).
विशेष:- इस ताम्रलेख के पाठ में ऊपर कोष्ठकों में शुद्ध पाठ भी साथ में दिया जा रहा है।
संदर्भ. Annals as Antiquities & Rajastjan.ed, by crook bol. pp360
वीर विनोद जिल्द 2 पृ. 25, राजपूताने का इतिहास जि. 2 पृ. 706 एवं 55
बांकी दास री ख्यात- संपादक, पं. नरोत्तमदास जी स्वामी.
प्रकाशक, राजस्थान पुरातत्वान्वेषण, मंदिर, जयपुर कृ.पृ. 142 अनुच्छेद 1676.