भक्‍त कर्मेती (बाई)

पारीक कुल तिलक 'कर्मेती बाई' कां‍थड़‍िया पुरोहित 'परसाराम जी खण्‍डेले वालों' (तत्‍कालीन राज्‍य जयपुर, राजपूताना) की पुत्री सन् 1600 की शताब्‍दी में हुई। बाल्‍यावस्‍था से भगवान की भक्ति हृदय में जम गई थी। इनकी इच्‍छा के विपरीत विवाह हुआ। गौना(दिवरागमन) के समय घर चली गई। एक ऊंट के खाली खोखरे में तीन दिन तक छिपी रही। पीछा करने वालों का भय मिट जाने पर निकल कर किसी गंगाजी जाने वाले के साथ जाकर गंगा स्‍नान किया। फिर वृन्‍दावन चली गई। पिता को पता लगा तो उन्‍हें लाने वो वृन्‍दावन पहुंचे परन्‍तु बहुत समझाने पर भी वे नहीं आई वरन् पिता को भक्ति का उपदेश दिया और राधाकुण्‍ड से निकाल कर भगवान 'बिहारी जी' की मूर्ति सेवा को देकर पिता को विदा किया। पिता घर आकर मूर्ति की सेवा करने लगे ओर इसमें तल्‍लीन हो गये। खण्‍डेला के राजा ने इनकी भक्ति की प्रगाढ़ता देखी व कर्मेतीजी की भक्ति की इतनी महिमा सुनी कि वृंदावन गये और वहां कर्मेतीजी के लिए खण्‍डेला राजा जी ने ब्रह्मघाट(ब्रह्मकुण्‍ड) पर एक कुंज कुटी बनवा दी जिसका निशान अब भी है। बिहारी जी का एक अच्‍छा मंदिर खण्‍डेला में विद्यमान है। उसकी सेवा परशुराम जी के वंशज करते हैं जो इस ही कारण से 'बिहारी जी' कहलाते हैं। मंदिर के भोग, राग और निर्वाह के निमित्त 12 कोठियों की आजीविका खण्‍डेला, सीकर आदि स्‍थानों में हैं। कर्मेती बाई ने आचार से रहने को परशुराम जी से कह दिया था सो प्रथा बहुत समय तक चली परन्‍तु अब ढीली पड़ गई।

पारीक पुरोहितों के राव भाटों के पास इन कर्मेती बाई का काफी हाल है तथा परसराम जी के वंशज बिहारीजी वालों के पास भी इनका वृत्तांत है। भक्‍तमालों में जो कुछ लिखा है वह उसका वृत्तांत तो आगे चलकर लिखा ही जायेगा परन्‍तु इन दोनों स्रोतों से जो कुछ जाना गया उसका संक्षिप्‍त यहां दिया जाता है।

परसराम जी की उम्र काफी हो गई थी(शायद 40-50 साल के) उस समय उनके संतान नहीं हुई थी, इस दु:ख से दु:खी होकर वे अपनी 'कुल देवी कुंजल माता' की यात्रा, संतान की इच्‍छा से करने को कटिबद्ध हुए और स्‍त्री सहित 'जायल नगरी'(इलाका मारवाड़) के लिए रवाना हुए। यहां तक प्रतिज्ञा कर चुके थे कि या तो माता संतान का वर दे देंगी नहीं तो इस शरीर को मातो के बलि चढ़ा देंगे। चलते-चलते रास्‍ते में जायल नगरी से इस तरफ कुछ रात रहे परसराम जी हाथ मुंह धोने को निकले थे और माता जी का गहरा ध्‍यान लगाये हुए थे। प्रात:काल की कुछ सफेदी पूर्व दिशा में झलकने लगी थी। आकाश में तारों का प्रकाश हो रहा था, शीतल मंद पवन बह रही थी। ऐसे सुंदर समय में सामने से एक दीप्तिमान दिव्‍य स्‍त्री  का उन्‍हें आभास हुआ। दर्शन से चित्त प्रसन्‍न हुआ। उस प्रकाशमान मूर्ति ने पूछा 'तू कहां जाता है' परसराम जी ने अपने मनोरथ को बड़े आर्तस्‍वर से कहा कि मैं अभागा हूं, मेरे संतान नहीं होती सो अब कुल देवीजी को अपनी बलि देने जा रहा हूं। उनकी मर्जी होगी तो मुझे सभागा कर देंगे नहीं तो जीकर क्‍या करना है? इतना सुनकर उस देवी ने वरदान दिया कि 'जा तेरे चार पुत्र होंगे' यह सुनकर प्रसन्‍न हुए और अपनी स्‍त्री का, घर गृहस्‍थी का विचार करके बड़ी नम्रता से कहा कि इतना वरदान हुआ तो क्‍या एक कन्‍या भी होनी चाहिए और वह आप जैसी हो।

देवी ने कहा कि यह इच्‍छा भी पूरी होगी। इस पर परसरामजी ने पूछा कि आप कौन हो और मुझ पर इतनी कृपा कैसे की तो देवी ने कहा कि 'जिसकी यात्रा करने और जिसको तू अपनी काया बलि चढ़ाने जाता है वही मैं हूं। परसरामजी ने कहा कि यह मैं कैसे जानूं? इस पर माताजी ने सिंहवाहिनी अष्‍टभुजा होकर झांकी दी और कहा कि अब तो विश्‍वास हो गया? दर्शन करते ही और......इतना सुनते ही परसरामजी ने गदगद होकर देवी की स्‍तुति करते हुए साष्‍टांग दंडवत की और कहा कि आज मैं धन्‍य हूं और मेरा जीवन कृतार्थ हुआ। इस पर देवी ने आज्ञा की कि 'तुझे साक्षात दर्शन मिल चुके अब घर लौट जा तेरी कामना पूर्ण हो जाएगी।' परसरामजी ने शीघ्र ही लौटकर यह वृत्तांत अपनी स्‍त्री से कहा और नित्‍य कर्म से छुट्टी पाकर अपने घर लौटे। इस वरदान के प्रताप से उनके चार पुत्र और एक कन्‍या, पांच संतान हुई। यही कन्‍या कर्मेती बाई थी। कर्मेती की सगाई सांगानेर के वर्णा खांप के जोशियों के यहां कर्मेती की इच्‍छा के विरुद्ध हुई और विवाह भी उन के अनचाहे ही हुआ। बाल्‍यावस्‍था से ही वे कृष्‍ण की वात्‍सल्‍य भाव से उपासक थी। माता-पिता की सत्‍संगति का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि अपने छोटे से ठाकुर जी के अहर्निश लड़ती थी और बिहारी जी उनका नाम रख छोड़ा था। वैराग्‍य के चिन्‍ह उनके तन और मन पर अभी से दिखाई देने लगे थे, कि अभी 12 वर्ष की होने पाई थी। इस विवाह के हो जाने से मन उदास रहता था जब मुकलावा (दिरागमन) को ससुराल से दूल्‍हा आया तो आधी रात को अकेली घर से पूर्व की ओर निकल गई जिस जगह जोड़ी(छोटी बनी व सूखी तलाई में वह ऊंट कंकाल था) उसमें उन्‍होंने तीन दिन अपने को छिपाए रखा। उसको अब भी लोग जानते हैं और 'करमा बड़ी जोड़' कहकर पुकारते है। यह जगह खण्‍डेले से ऊंगूणी (पूर्व) तरफ 'मुकुन्‍द की बावड़ी के पास है'।

जो मूर्ति बिहारी जी की कर्मेती बाई ने अपने पिता को दी थी वह अब तक खण्‍डेले में बिहारी जी की कहाती है और विराजमान है, इसके पिता ने चिन्‍ह मांगा तथा तब राधाकुण्‍ड में डुबकी लगाकर कर्मेती ने लाकर अपने पिता को दी थी। परन्‍तु प्रिया जी की मूर्ति लाने को फिर डुबकी लगाई और देर हो गई बाहर नहीं निकली तो मूर्ति कुछ छोटी आई, उस पर पिता से कहा कि आपने बड़ी उतावली करके काम बिगाड़ दिया। प्रियाजी की भी उतनी ही बड़ी मूर्ति मिलती यदि कुछ और इन्‍तजार करते और घबराते नहीं यह बात बिहारी जी वालों में प्रसिद्ध है।

पिता ने जब चलने का बहुत आग्रह किया और ऊंचा नीचा समझाया कि तुम्‍हारे यों भाग आने से पीहर और सासरे दोनों की बड़ी बदनामी है सो एक बार अवश्‍य चलो, तो वे पिता के साथ खण्‍डेले आयी बतायी और बिहारी जी की स्‍थापना अपने हाथ से पिता के घर में की और कुछ दिन बीतने पर वृन्‍दावन लौट गई और फिर कभी वापस नहीं आयी। यह बात भक्‍तमाल की कथा से नहीं मिलती, वहां कर्मेती जी का खण्‍डेला आना नहीं लिखा है।

कर्मेती जी ने अपने पिता और घरवालों से कह दिया था कि यदि आप मर्यादा से चलोगे तो बिहारी जी तुम से 'अरस परस(परोक्ष साक्षात) रहेंगे' किन्‍तु कुछ समय पूर्व मर्यादा भंग हो जाने से अब वह शक्ति और वह बात नहीं रही।

कइयों का कथन है कि मंदिर खण्‍डेले के राजाजी ने बनवाया था। कोई कहता है प्रसिद्ध राव बहादुर पारीक पुरोहित राजा मानजीदास ने मंदिर बनवाया था और उनके भतीजे पुरोहित रामनाथ जी, खेतड़ी के प्रसिद्ध मुसाहिब, ने पूरा किया था। इन दोनों को और खण्‍डेले के राजाजी को बिहारी जी ने परचे दिये बताये व अन्‍य राजाओं और पुरुषों को चमत्‍कार बताया।

इस कथा की प्रचीनता और उसके समय की प्रामाणिकता दिखाने को कुछ सनद व पट्टे जमीनों आदि के बिहारी जी वालों के पास अब भी विद्यमान हैं।

(1) मिती वैशाख बदी 5 सं. 1728 का बहादुर सिंह जी का दिया। 

(2) मिती सावण बदी 13 सं. 1748 का सांवलदासजी का दिया। 

(3) सं. 1683 का इसकी मिती नहीं, देने वाले का नाम कट किया। 

(4) मिती वैशाख बदी 10 सं. 1855 का एक कागज जिसमें आमील परगना गाजी के थाणे के नाम राजाज्ञा से हौशदार खां का हुक्‍म है कि ठाकुर जी श्री बिहारी जी खण्‍डेले से आते हैं सो अलवर तक जाबता से पहुंचा देना इत्‍यादि लिखा है। 

(5) मिती भादवा सुद 3 सं. 1855 का एक कागज बखतावरसिंह जी का अरजी के तौर पर है, जिसमें ठाकुर जी को पधारने की प्रार्थना की है और सेवा बंदगी करने की प्रतिज्ञा की है। ये दोनों कागज यह बता रहे हैं कि बिहारी जी की इतनी प्रसिद्धि हो गई थी कि राजा लोग श्री जी को अपने यहां पधराते थे बुलाकर विराजमान करते थे और सेवा बंदगी करते थे। कुछ पट्टे और कागजों की पूरी नकल भी यथास्‍थान आगे दी जावेगी जिससे पाठकों को वास्‍तविक जानकारी मिले और ईश्‍वर महिमा की जानकारी हो।

भक्‍तमाल की पुस्‍तकों में कर्मेती जी का लो कुछ वृत्तांत कथारूप में दिया हुआ है वह यथावत निम्‍न प्रकार है जिससे उन पुस्‍तकों का श्रम और भाव मालूम हो जावे और इस पारीक कुछ भूषण भगवद्भक्‍त का सच्‍चरित्र पुस्‍तकों के अनुसार अविकल ज्ञात हो जाय तथा भक्‍तमाल के अतिरिक्‍त 'भक्‍तकल्‍पद्रुम' में भक्‍तवर प्रतापसिंहजी रचित वचनिका भाषा है उसमें चौ‍बीस निष्‍ठा वाला विभाग किया है। नवलकिशोर छापेखाने की सन् 1922 (सं. 1980) की दूसरी आवृत्ति है। इसमें 23वीं निष्‍ठा, श्रृंगार व माधुर्य में तीसरे भक्‍त 'कर्मेतीजी' की क्‍या पृष्‍ठ 368-370 पर लिखी है, वह अविकल रूप में निम्‍न प्रकार है-

कर्मेतीजी परशरामपुर के रहने वाले कण्डिले (खण्‍डेले) राजा शिखादत्त (शेखावत) के प्रोहित (पुरोहित) की बेटी ऐसी परम भक्‍त हुई, कि कलयुग जो हजारों कलंक व पीड़ा से भरा हुआ है, करमैतीजी के निकट नहीं आया, अनित्‍य पति को छोड़कर नित्‍य निर्विकार पति श्रीकृष्‍ण महाराज से प्रीति लगाई व संसार की सब फांसे तृण के सदृश तोड़कर वृंदावन में वास किया। निर्मल कुल के परशुराम ब्राह्मण जो उनके पिता हैं, उनके पिता हैं, उनके धन्‍य भाग हैं, जिनके घर ऐसी लड़की जन्‍मी, जिसकी बड़ाई और भक्ति सब भक्‍तों ने वर्णन करी। श्री कृष्‍ण महाराज की छवि पर करोड़ों कामदेव निछावर होते हैं, उसमें ऐसा चित्त को लगाया कि उस छवि के चिन्‍तन व ध्‍यान में मग्‍न रहती और ध्‍यान के सुख से ऐसा आनंद व स्‍वाद लेती कि शरीर में न समाती व संसार का सब काम असार व फीका हो गया। कर्मेतीजी का पति 'गबना' लेने के निमित्त आया। माता-पिता ने गहने व कपड़े की अच्‍छी तैयारी करी। कर्मेतीजी को सोच हुआ कि यह तन भगवदभजन के हेतु है, शरीर के विषय भोग लेने के‍ नि‍मित्त नहीं है, इस हेतु देह त्‍याग की इच्‍छा करी, फिर सोचा कि भगवद् की प्रीति ओर भजन सब अर्थों पर मुख्‍यतर अर्थ है और जगत की प्रीति व संबंध सब अनित्‍य हैं, सो बिना शरीर भगवद भजन नहीं हो सकता इस हेतु देह का त्‍याग करना उचित नहीं, भजन के विरोधियों का त्‍याग योग्‍य है, यह विचार-सिद्धांत ठहरा के जिस रात भोर को गवना था उसी रात को आधी बीतने पर भगवद की छवि में छकी हुई और उसी ध्‍यानस्‍थ रूप के साथ निर्भय निराली अकेली घर से निकल कर चल खड़ी हुई। प्रभात को चारों ओर आदमी ढूंढने को दौड़े। उनको आते देखकर ऊंट के कंकाल में घुसकर छिप गई, व कलियुग के पापों की दुर्गन्‍ध के बराबर मरे ऊंट की दुर्गन्‍ध नहीं भूल सकी। इसी कारण से वह दुर्गन्‍ध जान न पड़ी व भगवत श्रृंगार के इत्र इत्‍यादि की सुगन्‍ध जो मन व प्राण के मस्‍तक में समाई थी उसके कारण से भी कुछ दुर्गन्‍ध का विकार न हुआ। तीन दिन उसी कंकाल में छिपी रही।

तीन दिन बीते उसमें से निकलकर एक मेला गंगा नहाने को जाता था उसके साथ गंगाजी पर आई, वहां स्‍नान करके गहने सब दान कर दिये। जब मथुराजी में गई वहां स्‍नान और यात्रा करी, तब वहां से वृंदावन में ब्रह्मकुण्‍ड पर निवास करके भगवान के चिन्‍तन और ध्‍यान में रहने लगी। कर्मेती जी के पिता परशुराम ढूंढता-ढूंढता मथुराजी में पहुंचा। एक मथुरावासी चौबे से पता पाकर वृंदावन में गया। उन दिनों में इतनी आबादी व कुंज व बाग इत्‍यादि वृंदावन में नहीं थे, वन सघन व हरियाली बड़ी थी, एक बरगद के वृक्ष पर चढ़कर देखा कि कर्मेती जी भगवद ध्‍यान में विराजमान है। वृक्ष से उतरकर उनके पास आया और अत्‍यन्‍त स्‍नेह से रोता कल्‍पता चरणों में लिपट गया और कहने लगा कि तुम्‍हारे चले आने से मेरी नाक कट गई, कि भाई बन्‍धु कलंक लगाते हैं और सारे तेरा बोल मारते हैं, अब घर चलो, अपने ससुराल में जाकर भगवद भक्ति व सेवापूजा किया करो, यह वन है कोई जन्‍तु तुझे खा जाएगा, हमको दुख होगा, तुम्‍हारी माताजी मरने को अटकी है, उसको जिलाओ। कर्मेतीजी ने उत्तर दिया कि निश्‍चय ही जीने की चाह है तो भगवत भक्ति करनी चाहिए और यह जो कहते हो कि नाक कट गई सो नाक पहले से तुम्‍हारे मुंह पर न थी, क्‍योंकि मुख्‍य नाक भगवदभजन व भक्ति है, बिन उसके हजारों नकटे कानकटे हैं। सोचो कि पचास वर्ष तुम्‍हारी अवस्‍था संसार के विषय विलास में बीत गई और कब ही तृप्ति न हुई, अब भी मोह रूपी नींद से जागो कि सब भोग विलास अनित्‍य व तुच्‍छ हैं, भगवत् का भजन सार है, सब बखेड़ा छोड़कर उसी ओर मन लगाओ। इस थोड़े ही उपदेश से परशुराम का अज्ञान इस प्रकार दूर हो गया कि जैसे सूर्य के उदय होने से अन्‍धकार का नाश हो जाता है।

तब तक कर्मेती जी एक भगवत स्‍वरूप सेवा के निमित्त दिया व विदा किया। परशुराम घर आया, भगवत मूर्ति विराजमान करके ऐसा मन लगाया कि सिवाय सेवा व भजन के दूसरी ओर तनिक सूरत न रही, व लोगों के यहां आना-जाना सब किसी से बोलना बतलाना भी छोड़ दिया। एक दिन राजा ने लोगों से पूछा कि परशुराम ब्राह्मण बहुत दिनों से हमारे पास नहीं आता उसका क्‍या समाचार है। किसी मनुष्‍य ने सब वृत्तांत विस्‍तार से भक्‍त व भजन का वर्णन किया। राजा ने मनुष्‍य बुलाने को भेजा, परशुराम ने कहा अब राजा से कुछ काम नहीं, मनुष्‍य तन पाकर जो कार्य करना चाहिए तिसमें लगा हूं। राजा परशुराम की भक्ति और वैराग्‍य को विचार कर के आप दर्शनों के निमित्त आया, और उनकी सांत्तरा प्रीति भगवत में देखकर और कर्मेतीजी की भक्ति और वैराग्‍य का वृत्तांत सुनकर प्रेम से विह्वल हो गया, इच्‍छा हुई कि कर्मेतीजी का दर्शन करना चा‍हिए, जो मेरे अच्‍छे भाग्‍य हो तो क्‍या आश्‍चर्य है कि आवें और देश को पवित्र करें। इस आशा से वृंदावन को गये, और कर्मेतीजी के दर्शन किए।

देखा की नंदनंदन महाराज की निश्‍चल और दृढ़ प्रीति में कर्मेतीजी उस अवस्‍था में पहुंच गई हैं कि कुछ कहने सुनने की वेर नहीं रही। उस दशा में चलने के निमित्त अधिक बोल चाल न कर सका, और कर्मेती जी के मना करने पर भी कुंजकुटी कर्मेती जी के रहने के निमित्त बनवाकर चरणों को दण्‍डवत करके, फिर आया और भगवद भजन में लवलीन हुआ। अब तक कुटी कर्मेतीजी की 'ब्रह्मघाट' पर प्रगट है।"

"यह उन्‍था हिन्‍दी फारसी से हुआ, संभवत: आदि मूलपुस्‍तक नाभाजी के छग्‍मय, और उन पर प्रियादास जी की टीका के छन्‍द अनुवादक ने देखकर मिलान नहीं किये, ऐसा ही झलकता है। क्‍योंकि नाभादास जी का मूल छप्‍पय संख्‍या 160 में 'कांथड़ना' स्‍पष्‍ट है। तथा प्रियादास जी की टीका के छन्‍द संख्‍या 584 में 'शेषावति नृप' और पुरोहित तथा खण्‍डेला बहुत शुद्ध नाम दिये हैं तथापि उपरोक्‍त अनुवाद में नामों को गड़बड़ लिखा इसी से यह बात दिखानी पड़ी है।"

"अब यहां महात्‍मा कविवर नाभादास जी के छप्‍पय और वृंदावनवासी प्रसिद्ध भक्‍त प्रियादासजी के कवित्त उद्धृत करते हैं। मूल छप्‍पय और प्रियादासजी के टीक के छन्‍द अनेक छापेखाने में अनेक बार छप चुके हैं और तुलसीदास जी की रामायण की तरह भक्‍तमाल के भी अनेक संस्‍करण होते रहते हैं। अनेक टीकाएं भी हो गई हैं और छप भी चुकी हैं। सबसे अधिक प्रमाणिक उक्‍त मूल और उक्‍त टीका महंत भगवान प्रसाद जी (राम-रस-रंगमणिजी) अयोध्‍या वालों की पुस्‍तक प्रतीत हुई, सो उस ही से उद्धृत करते हैं। इन कृतिविद्य महंत जी ने परमोत्‍कृष्‍ट 'वार्तिक' नाम का तिलक बनाकर साथ ही प्रकाशित किया है सो भी आगे चलकर हम देंगे। यह ग्रंथ लखनऊ के प्रसिद्ध नवलकिशोर प्रेस में सन 1913 में छपा है।"

'कठिन काल कलिंजुग में करमेती निहकलंक रही'। 

नश्‍वर पति रति त्‍यागि कृष्‍ण पद सों रति जोरी। 

सवै जगत की फांसि तरकि तिनुका ज्‍यो तोरी।। 

निर्मल कुल कांथड़या धन्नि परसा जिहिं जाई। 

विदित वृंदावन वास संत मुख करत बड़ाई।।

संसार स्‍वाद सुख वान्‍त करि, फैरि नहीं तिन तन चही। 

कठिन काल 'कलिजुग' में, 'करमेती' निष्‍कलंक रही।।161।।

इस पर प्रियादासजी की टीक के संख्‍या 584, 585, 586, 587, 588, 589, 590, 591 आठ कवित्त हैं जो निम्‍न हैं-

"शेषावति नृप के पुरोहित की बेटी जानो,

वास हौ खण्‍डेला करमेती जो बखानिवे। 

बस्‍यो उर श्‍याम, अभिराम कोटि कमाहूं ते,

भूले धाम काम सेवा मानसी पिछानिये।। 

बीत जात जाम तन वाम अनुकूल भयो,

फूलि-फूलि अंग गति मति छवि सानिये। 

आयो पति गौनो लैन, भायो पितु मातु हिये,

लिये चित्त चाव यह आभरन आनिये,"।।584।।

"परयो शोच भारी कहा कीजिए विचारी,

हाड चाम सों संवारी देह रति के न काम की। 

तातें देवी त्‍यागि मन, सोवै जनि जाग धरे,

मिटै उर दाग एक सांची प्रीति श्‍याम की। 

लाज कौन काज? जौपे चाहे ब्रजराज सुत, 

बड़ाई अकाज जौ पै करै सुधि धाम की।

जानी भोर गौनो होत सानी अनुराग रङ्ग,

संग एक वहीं चली भीजी मति बाम की"।।585।।

"आधि निशि निकसी यों वसी हिये मूरति सो,

पूरति सनेह तन सुधि बिसराई है। 

भोर भये शोर परबो, परयो पितु मातु सोच,

करयौ लै जतन ठौर ठौर ढूंढि आई है।। 

चारौ और दौरै नर आयो ढिंग ढुरि जानि,

ऊंट के कंकार मध्‍य देह जा दुराई है।

जग दुरगंध कोऊ ऐसी बुरी लगी जामें, 

वह दुरगन्‍ध सो सुगन्‍ध सी सुहाई है"।।586।।

"बीते दिन तीन वा कर ही में शंक नहीं,

वंक प्रीति रीति यह कैसे करी गाइये। 

आयो कोउ संग ताही संग गंग तीर आई,

तहां सो अन्‍हाई दै भूषण वन आइये।। 

ढूंढत परशुराम पिता मधुपुरी आये, 

पते लै बताये जाय माथुर मिलाइये।

सघन विपिन ब्रह्मकुण्‍ड पर बर एक,

चढि करि देखी भूमि अंखु भिजाइये"।।587।।

"उतरि के आय रोय पाय लपटाय गया,

कटी मेरी नाक जब मुख न दिखाइये 

चलो गृहवास करो लोक-उपहास मिटै,

सासु घर पर जावो मत सेवा चितलाइये।। 

कौऊ सिंह व्‍याघ्र आजू वपु को विनास करे, 

त्रास मेरे होत फिरि मृतक जिवाइये।

बोली कही सांच बिन भक्ति तन ऐसो जानौ, 

जापै जियो चाहो करो प्रीति जस गाईयें"।।588।।

"कही तुम कटी नाक कटे जोपै होय कहूं,

नाक एक भक्ति नाक लोक में न पाइये। 

बरस पचास लगि विषै ही में बास कियो,

तऊ न उदास भये चबे को चबाइये।। 

देखे सब भोग मै न देखे एक देखे श्‍याम,

तातैं तजि काम तन सेवा में लगाइये।

रात तें ज्‍यों प्रात होत ऐसे तम जात भयो,

दयो लै स्‍वरूप प्रभु गयो हिये आइये,"।।589।।

"आये निशि धरि हरि सेवा पधराय,

चाय मन को लगाय वही टहल सुहाई है। 

कहहूं जात आवत न भावत मिलाप कहूं,

आप नृप पूछे द्विज कहां? सुधि आई है।। 

बोल्‍यो कोऊ जन धाम श्‍याम संग पागे,

स‍ुनि अति अनुरागे बेगि खबर मंगाई है।

कहों तुम जाय ईश इहांई अशीस करौ,

कहीं भूप आयो हिये चाह उपजाई ह"।।590।।

"देखी नृप प्रीति रीति पूछी सब बात की,

नैन अश्रुपात वह रंगी श्‍याम रंग में। 

बरजत आयो भूप जाय के लिवाय ल्‍याऊं,

पाऊं जौ पै भाग मेरे बढ़ी चाह अंग में।। 

कालिंदी के तीर ठाड़ी नीर दृग भूप लखी,

रूप कछु औरै कहा कहै वे उमंग मे।

कियो मनै लाख बेर ऐपै अभिलाख राजा,

कीनी कुटी आये देश भीजे सो प्रसंग में"।1591।।

"यहां तक (1) मूल छप्‍प्‍य नाभादासजी की पर (2) प्रियादासजी के टीका स्वरूप कवित्त हैं।"

"उपरोक्‍त से प्रगट होता है कि नाभादासजी ने थोड़े से अक्षरों में ही किस दक्षता और चतुराई से इतनी बड़ी कथा को एक छप्‍पय में वर्णित कर दिया है। यदि प्रियादासजी ने बड़े खोज तलास और महात्‍माओं से वृत्तांत सुन और देशाटन कर इतनी विस्‍तृत सुचारू टीका न बनाई होती तो आज उन कथाओं को केवल एक छप्‍पय से समझ लेना और कई एक गूढ़ बातों को जान लेना बड़ा दुष्‍कर हो जाता। एक छप्‍पय पर देखिए आठ कवित्तों में टीका विस्‍तारी हैं। परन्‍तु प्रियादासजी ने कथा को विस्‍तार से लिखा है तब भी उनकी भी वाणी बहुत स्‍थलों में ऐसी संकीर्ण संकेत भरी संकुचित है कि उस पर व्‍याख्‍या की आवश्‍यकता दिखाई रे रही है। इस ही सुगमता के निमित्त यहां महंत श्री भगवानदासजी प्रसिद्ध रामरसरंगमणि जी का 'वार्तिक' दे दिया जाता है कि जिससे प्रियादासजी की टीका का आशय और भाव और उनकी कविता का चोज और घुंडियों का विकास हो जाएगा।"

"हमारी बुद्धि में इनके वार्तिक से बढ़कर अब तक कोई गद्य टीका उत्तम मुद्रित रूप में नहीं है। यों महात्‍मा और पंडित लोग कथा करने में बहु उत्तम व्‍याख्‍या करते हैं। परन्‍तु उस व्‍याख्‍या को लेख रूप में नलिया जाय और प्रकाशित न की जाय तब तक श्रोताओं के अतिरिक्‍त अन्‍य पुरुषों को उसका कैसे उपयोग और लाभ हो सके। इस कारण से वार्तिक को भी अविकल दे दिया जाता है।"

(क) नाभादासजी की छप्‍पय पर वार्तिक

"कलियुग ऐसे कठिन काल में जन्‍म लेकर श्री करमेतीजी कलियुग के अघों से बची और निष्‍कलंक रही।" संसारी मियापति को त्‍यागकर, श्रीकृष्‍ण चरणों में दृढ़ रति की।

"बसी श्‍याम मूरति हिये, वाढ्यो प्रेम अपार"

जगत के सब संबंधियों की प्रतिरूपी फांसा(फांसी वा धांस) तर्क कर तृण समान तोड़ डाली। निर्मल 'कांथड़या' कुल धन्‍य है और पिता 'परशुरामजी' धन्‍य है जिनके ऐसी हरि भक्‍ता पुत्री उत्‍पन्‍न हुई। विख्‍यात वृंदावन वास किया जिसकी बड़ाई सब संत अपने मुख से करते थे, संसारस्‍वाद विषयसुख का वमन करके, फिर उन सुखों की तरफ देखा भी नहीं।

"असल छप्‍पय को और वार्तिक को मिलाने से प्रगट होगा कि वार्तिककार ने अक्षरार्थ और भावार्थ उत्तम किया है।"

यह कह देना आवश्‍यक है कि चाहे प्रियादासजी ने ऐतिहासिक और भौगोलिक बातों और करमेतीजी के वा परशुराम जी के कुल इत्‍यादि बातों को कुछ नहीं खोला था,  परन्‍तु इस विज्ञान और विद्या के युग में वार्तिककार को अवश्‍य ढूंढ भाल कर इस प्रकार और प्रसंग की बातें लिखनी उचित ही थी।"

"छन्‍यात-शिरोमणि पारीक जाति में नौ गोतों वा खांपों में कांथडि़या अग्रगण्‍य माने जाते हैं। इनका निकास खंथड़ ऋषि से है और नरवर से मारवाड़ आये और मारवाड़ से इनकी एक शाखा डायजवालों की आमेर (जयपुर की पुरानी राजधानी) में खींचणजी राणी के साथ आई। यह 12वीं सदी की बात है। करमेतीबाई का ठीक संवत् जन्‍म काल नहीं जाना जा सका परन्‍तु वृंदावन गये तब 15 वर्ष से नीचे की उम्र के होंगे और उसके कुछ समय (एक वर्ष) पीछे परशुरामजी उनके पास वृंदावन वापस लाने को गये तब (प्रियादासजी टीका के अनुसार) बाईजी ने उनकी 'पचास' बरस व्‍यतीत करना कहा। मान लें की तब 53 वर्ष के थे। तो कर्मेतीजी का जन्‍म परशुरामजी के 40वें वर्ष के पास होना पाया जाता है।"

"भक्‍तमाल को अनेक रंग ढंग से विद्वानों ने गाई हैं और ये भक्ति महाराणी की परिचर्या की है। ऐसे अनुपम ग्रंथों में से एक है 'भक्‍ताम्‍बुनिधि'। मौजे रामकोट(जिला सीतापुर) के निवासी परमभक्‍त पण्डित जियालालजी त्रिपाठी का ललित सुमधुर छन्‍दों (चौपाई दोहों) में यह ग्रंथ सन् 1895 में नवलकिशोर छापाखाने में छपा है। उस ही से यह कथा उदधृत होती है,"

भक्‍ताम्‍बुनिधि में श्री करमैती बाई की कथा 

चौपाई

करमैतीजी की शुभ गाथा। वरणो अब भगवत यश साथा। 

शिखादित्‍य नृप कण्डिल केरे। परशुराम तिहि प्रोहित हेरे।।1।। 

तिन कन्‍या 'करमैती' नामा। भगवत् भक्‍त भई छविधामा। 

कलिकरण्‍ड जो भयो कलंका। निकट न आव भई नहिं शंका।।2।। 

जिन निजपति को दियो बिहाई। निर्विकार पति हरि मन लाई।। 

जगत फांस तृण के सम तोरी। वृंदावन किय बास बहोरी।।3।। 

परशुराम ब्राह्मण धिनि गाये। जिन ऐसी कन्‍या प्रकटाये। 

जासु भक्ति शुभ भक्‍तन गाई। तोकी को करि सकै बड़ाई।।4।। 

महाराज श्रीकृष्‍ण की शोभा। कोटिन काम लाज छवि लोभा। 

छवि चितवन रहत सो बाला। ध्‍यानमग्‍न रहती सब काला।।5।।

आनंद स्‍वाद लेते या भांती। निज शरीर में नहीं समाती।। 

सब जग काम असार विचारा। फीका लगत सकल संसारा।।6।। 

द्विरागमन हित तिन पति आयो। मात पिता सब साज सजायो। 

बिदा करन हित करी तयारी। भयो शौच करमैति हि भारी।।7।। 

भगवत भजन हेत यह देहा। विषय भोग के हित नहिं एहा।। 

तन त्‍यागन इच्‍छा मन दीन्‍ही। पुनि विचार अपने मन कीन्‍ही।।8।। 

भगवत भजन प्रीति है सारा। जगत प्रीति संबंध असारा।। 

बिना शरीर भजन नहीं होई। त्‍यागत उचित न जानो सोई।।9।। 

योग त्‍यागि बे भजन विरोधी। यह सिद्धांत हिये निज शोधी।। 

जिहि निशि भोर गमन रिरपाना। तिहि आधी में कीन्‍ह पयाना।।10।। 

भगवत छबि में छकी छबीली। ध्‍यानमग्‍न भई चली अकेली।। 

निभय निपट निराली सोई। ताक्षण जानत भो नहिं कोई।।11।। 

प्रात जागि सब ढूंढन धाये। करमैती देखो जन आये।। 

मृतक ऊंट कंकार समानी। ता मंह छिपी न कोऊं जानी।।12।। 

कलियुग अध दुर्गन्‍ध समाना। मृतक ऊंट दुर्गन्‍ध न जाना।। 

पुनि भगवत श्रृंगार सुहावा। अतर सुगन्‍ध हिये में छावा।113।। 

सो दुर्गन्‍ध विकार न आई। तीनि दिवस तंह रही छिपाई।। 

चौथे दिवस निकर यह देखा। मेला गंगा जात विशेखा।।14।। 

ताके संग गंगा पर जाई। दीन्‍हें भूषण किये अन्‍हाई।। 

मथुरा मांहि बहुरि चल आई। मज्‍जन यात्रा किये हरषाई।।15।। 

गई बहुरि वृंदावन खासा। ब्रह्मकुण्‍ड पर किये निवासा।। 

हरि चितवन तत्‍पर जो ध्‍याना। रहन लगी तामें सुखदाना।।16।। 

करमैती के पिता सुहाये। ढूंढत मथुराजी में आये।। 

चौबे एक पता बतलाये। पता पाय वृंदावन आये।।17।1 

हरित सघन वृंदावन देखी। सो बटैक चढि गये विशेखी।। 

ध्‍यान मग्‍न करमैती देखी। उतरि वृक्ष ढिग गये विशेखी।।18।। 

रोदन करि चरणन लपटाने। स्‍नेहात्‍यन्‍त मांह अकुलाने।। 

कहत भये तुम इत चलि आई। कटी नाक मेर विच भाई।।19।। 

मारत वचन सकल है मोही। सकल कलंक लगावत तोही।। 

अब घर को‍ चलिये सुनि लीजै। रहि घर सासु भक्ति हरि की जै।।20।।

कानन यह गंभीर महाई। कोऊ जंतु जोई इत खाई।। 

हमको दुख होवै इत भारी। मरत जियाबहु मातु तुम्‍हारी।।21।। 

करमैतीजी सुनि ये बैना। उत्तर देत भई गुण ऐना।। 

जासु भक्ति भगवत् उर नाहीं। सत्‍य मृतक सम जानि उताही।।22।। 

जीवन की आशा जो चाहै। भगवत् भक्ति हिये अवगाहै।। 

नाक कटी जो भाखी ताता। ताकि यह सुन लीजे बाता।।23।। 

प्रथम हि सो न नाक हम देखा। नक सु भगवत् भजन विशेखा।। 

ताबिन नकटाहा कोटिन आहीं। शोच करिय किन पितु मन माही।।24।। 

वर्ष पचास भये तनु धारी। विषय विलास आस नहीं मारी। 

अबहुं मोह नींद सूं जागो। विषय तुच्‍छ गुनि-हरि-पद-लागो।।25।। 

भगवत भजन सार गुनि लीजै। तजि सब तिंही और मन कीजै।। 

ऐसे सुनि उपदेश सुहावा। परशुराम अज्ञान नशाया।।26।। 

जिमि तम हो सूर्योदयनाशा। नशे मोह हिय ज्ञान प्रकाशा।। 

करमैती मन आनंद लीन्‍हा। भगवद मूर्ति तिनहिं इक दीन्‍हा।।27।। 

विदा कीन्‍ह हर्षित घर आये। मूरति सिंहासन बैठाये।। 

या विधि तिन पद चित्त लगायो। तजि हरि भजन नदोसर भायो।।28।। 

आवन जान बला बतरावा। सब तजि हरिपद चित्त लगावा।। 

कहि दिनैक नृप लोगन यांही। परशुराम आवत अब नाहीं।।29।। 

ताके समाचार है कैसे। लोगन कहां रहत सो जैसे।। 

राजा तिन कह बोलि पठायो। परशुराम तिन्‍ह वचन सुनायो।।30।। 

नृप सो हम सो काम न कोई। करत करन चह नरतन जोई।। 

ब्राह्मण हिये भक्ति असि देखी। अरू वैराग्‍य विचार विशेखी।।31।। 

दर्शन हित आपुहि चलि आयो। सांचि प्रीति देखि सुख पायो।। 

करमैतीजी को सुनि हाला। प्रेम विकल भो नृप तिहि काला।।32।। 

दर्शन हित इच्‍छा मन धारा। पुनि अपने मन कीन्‍ह विचारा।। 

मेरो भाग्‍य उदय जो व्‍हैहै। तो करमैतीजी इत ऐहै।।33।। 

देश पवित्र करें किन आई। कहि वृंदावन में नरराई।। 

करमैती के दर्शन कीन्‍हा। निश्‍छल भक्ति तासु लखि लीन्‍हा।।34।।

दोहा

नंद नंदन महाराज में देखो दृढ़ विश्‍वास। 

बहु न बारता करि सके चलन हेत निजवास।135 

मना करत यद्यपि भई तदपि नृपति गुण ऐन। 

कुंज कुटी बन धायऊ करमैती सुख दैन।।36।। 

करि दण्‍डवत सप्रेम नृप फिरि आये निज गेह। 

चरण कमल भगवत विषै करत भये अति नेह।।37।। 

करमैतीजी को कुटी ब्राह्मघाट पर सोह। 

जियालाल या विधि कथा मंगल सुख संदोह।।38।।

"इस प्रकार भक्‍त जियालाल जी विरचित यह सुन्‍दर छन्‍दोबद्ध चरित्र करमैती जी का है। इसको ऊपर लिखित अन्‍य भक्‍तमालों चरित्र से मिलाने से यह बात प्रतीत होगी कि जियालालजी ने अपना पाठ भक्‍त प्रतापसिंह जी की वचनिका भक्‍तमाल से लिया है। छन्‍द (1) में 'शिखादित्‍य' 'शेखावत' के स्‍थान पर, 'कण्डिल' शब्‍द खण्‍डेले की जगह ओर पुरोहित की जगह केवल 'ब्राह्मण' या 'द्विज' रखना भी एततस्‍वरूपी सिद्ध करता है। सबसे बड़ी बात (छन्‍द 20 में) 'रहि घर सासू' से प्रगट है क्‍योंकि मूल वा प्रियादास जी की टीका से करमैतीजी को जो पिता नेक हा था उसमें यह आशय है कि तुम ससुराल भले ही मत जाना, घर (मेरे घर अर्थात तुम्‍हारे पीहर) ही रह कर भजन करना, परन्‍तु फारसी से जो हिन्‍दी तर्जुमा है, उसमें भूल की है कि करमैतीजी को ससुराल रहकर भक्ति करना कहा है उसी का अनुवाद जियालालजी ने करके ऐसा लिखा है।"

"दूसरी बात कुटी का 'ब्रह्मघाट' पर बनना प्रतापसिंह जी के हिस्‍से में है वह ठीक नहीं क्‍योंकि कुटी ब्रह्मकुण्‍ड के पास है जैसा कि वार्तिककार ने लिखा है कि तथापि राजा ने ब्रह्मकुण्‍ड के पास एक कुटी बनवा ही दी। प्रतापसिंह जी के अनुवाद में जैसे पहिले ब्रह्मकुण्‍ड पर करमैतीजी का आ बसना कहकर कुटी का ब्रह्मघाट पर बनना लिखा है वैसे ही जियालाल जी ने रचना की है- यथा छन्‍द (16) में ब्रह्मकुण्‍ड पर कीन्‍ह निवासा लिखा और छन्‍द (38) में करमैतीजी की कुटी ब्रह्मघाट पर सोर्ह। संभवत: यह ब्रह्म शब्‍द दोनों में लगने से ही भूल हुई है क्‍योंकि करमैतीजी 'ब्रह्मकुण्‍ड' पर ही आके बसे थे और पिता भी वहीं मिले थे जैसा कि मूल टीकाकार प्रियादासजी के छन्‍द (587) में है-"

'सघन विपिन 'ब्रह्मकुण्‍ड'  पर बर एक ------' यह सत्‍य है है कि प्रियादासजी ने छन्‍द (591) में कुटी के बनने का स्‍थल नहीं बताया है। केवल यह लिखा है- 'किया मने लाख वैर ऐपै अभिलाख राजा, कीनी कुटी, आये देश भीजे सो प्रसंग मैं'। परन्‍तु जब करमैतीजी ब्रह्मकुण्‍ड पर आके रहे खण्‍डेले के राजा भी वहीं आये जहां इन बाईजी को परशुरामजी पिता आकर मिले तो कुटी ब्रह्मघाट पर राजा क्‍यों बनाते। ब्रह्मकुण्‍ड और ब्रह्मघाट एक चीज नहीं है भिन्‍न-भिन्‍न है सो वृंदावन यात्रा करने वाले और वहां के वासी जानते ही हैं कि -

"(1) करमैती बाई का वह आश्रम और उनका एक कुवां सेठजी के मंदिर (श्री रंगजी के मंदिर) के दक्षिण दरवाजे बाहर ही और कुवां मंदिर के घेरे में है। कुंज कुटी का अब एक चबूतरा चिन्‍ह रह गया है जो करीब 10 फीट चौड़ा और 15 फीट लम्‍बा ओर उस पर छप्‍पर पड़ा हुआ है। इस समय एक काली ब्राह्मणी इसकी निरीक्षक और रक्षक है। कुवां बहुत बड़ा है और चमत्‍कार इसका यह है कि मंदिर के घेरे में अन्‍य कुवों और ब्रह्मकुण्‍ड का भी जल खारा है और केवल यही एक मीठा है और पनी इसमें इतना कि सारे मंदिर का पशुओं की प्‍याऊ का इस ही से काम चलता है।

(2) खण्‍डेले का राजा वृंदावन में करमैतीजी से वंशीवाट पर मिला था, वहां पुराने लोगों और महात्‍माओं में ऐसा ही प्रसिद्ध है, यह बात पंडित कवि द्विवेदी वृंदावन तीर्थ गुरु से जानी गई और वृंदावन के पुरोहित रामनाथ जी और गोवर्धन जी तथा वृंदावन वासी जगवंशराय जी से अन्‍य सब बातों का भी निश्‍चय हुआ।

(3) रंगजी का मंदिर यमुनाजी के घाटों से आधी पौन मील दूरी पर है। ब्रह्मघाट कोई नहीं है, ब्रह्माण्‍ड घाट है सो वृंदावन से 8 कोस पर महावन में है इसका उससे कया संबंध है? लिखने वाले की बड़ी भूल है कि ब्रह्मकुण्‍ड को ब्रह्मघाट लिख दिया।"

करमैती बाई की कुंज कुटी को 25-30 वर्ष पहले लोगों ने पुराणी हालत में विद्यमान देखा है सो इससे जीवित प्रमाण लिय गये हैं कि अब इन बातों में किसी का संशय नहीं हो सकता।

रामरसिकावली में श्री करमैतीजी की कथा

दोहा


करमैती बाई सुमति तासु कथा विस्‍तार। 

मै वरणों सुनिये सकल, श्रोता संत उदार।।1।। 

शेखावत राजा रह्यो, रह्यो पुरोहित तास। 

करमैती दुहिता रही, ताही की छवि रास।।2।। 

जयपुर के सो राज्‍य में नाम खण्‍डेला ग्राम। 

उपरोहित दुहित सहित, वस्‍योतहां मतिधाम।।3।। 

तासु पिता ब्‍याही सुतै, आयो जब पति लैन। 

करमैती सोच्‍यो अतिहि, मिल्‍यो सकल चित्त चैन।।4।। 

हाड चाम को पति तजौ, होय मोर पति श्‍याम। 

उतरो भवनीरधि सहज, पूर होय मन काम।।5।।

चौपाई

असि विचार दुहिता अघरातै। त्‍यागि भवन भागी विलखाते।। 

नगर बाहिरे जाव विचारा। जन खोजि है होत भिनसारा।। 

केहि बिधि बचों लोग नहीं पामैं। भजौ अनन्‍य कंत गुणि श्‍यामै।। 

मृतक ऊंट यक परो निहारी। तासु उदर में छिपी कुमारी।। 

मृतक ऊंट दुर्गन्‍ध न मान्‍यो। जग दुर्गन्‍ध अधिक तेही जान्‍यो।। 

भोर भयो जन खोजन धाये। कतहूं न लखे दु:खी फिर आये।। 

कढी ऊंट तनुते दिन तीजे। चली प्रयाग श्‍याम रंग भीजे।। 

मज्‍जन कर‍ि तीरथपति मांही। कछु दिन मंह पुनि गे ब्रज मांही।। 

वृदावन बंशीवट ठामा। भजन लगी निज पति गुणि श्‍यामा।। 

पित तबै दुहिता सुधि पाई। आयो वृंदावन हरखाई।। 

कह्यो सुता पद मंह शिरधारी। चलो भवन कंह आशु कुमारी।। 

क‍टति नाक हो तो अपवादा। राखु सकल कुल की मर्यादा।। 

दोहा-- उत्तर दियो कुमारिका, सो कवित्त प्रियदास। 

विरच्‍यो सो यहि ग्रंथ में, मैं इत करो प्रकाश।।6।।

कवित्त- ' कही तुम कटी नाक......'। इत्‍यादि (प्रियादास टीका छन्‍द 589 ऊपर देखो)।

काल सरिस जानहु पिता, अतिकराल जगजाल। 

व्‍याल सरिस हाल हित, जो भजिये लाल गोपाल।।7।।

चौपाई

अस भाख्‍यो करमैती बाई। पिता सुनत जकि रह्यो बनाई।। 

लागे वचन बाण सम‍ही में। मान्‍यो अति गलान‍ि निज जी में।। 

त्‍यागि भवन तजि जग की आशा। कियो अचल तुलसी बनवासा।। 

शेखावत नृप यह सुधि पाई। मान्‍यो विप्र गयो बौराई।। 

बृज यात्रा करबै कै हेतु। आयो ब्रजहिं बाधि घर नेतू।। 

करमैती के निकट सिधारयो। विविध जतन करि वचन उचारयो।। 

जस पितु को दीन्‍ह्यो उपदेशा। तैसेहिं कीन्‍ह्यो नृपति निदेशा।। 

नृपहुं तासु सत्‍संगति पाई। खुलिगे हिये कपाट बनाई।। 

लौटि आपने सदन सिधारा ध्‍यावन लाग्‍यो नंदकुमारा।। 

फिरयो सिगरी राज्‍य निदेशा। करे भजन सब सरित रमेशा।। 

भजनानंद मगन भूपाला। छुटि गई यम भीति कराला।। 

मे हरिभक्‍त प्रजा तोहि केरे। रहे न लेश कलेश घनेरे। 

दोहा -- करमैती बाई चरित यहि विधि गुणहु अनंत 

लिख्‍यो न इत विस्‍तार वश क्षमिये आगस संत।।8।।

"इस प्रकार कविपति, भूपतिवर, महाराज रघुनाथसिंह जी रींवाधिपति की सारगर्भित सरत वाक्‍यच्‍छटा से यह आख्‍यान वर्णित हुआ। इसके वर्णन में

(1) प्रयाग जाना (2) खण्‍डेले के राजा का सब राज्‍य में आज्ञा पिटवाना आदि ऐसी बातें अन्‍य भक्‍तमालों से विलक्षण ही हैं।"

"तथापि इन स‍ब भक्‍तमालों और खण्‍डेले के इतिहास से यह बात उज्‍जवलता से प्रगट हो रही है कि इस पारीक कन्‍या की महिमा, इसकी अटल अनन्‍य भक्ति और दृढ़ आस्‍था और ध्रुव प्रेम कैसे-कैसे महात्‍माओं, कवियों और कवि भूप ने कितने आनंद और बढ़ाई के साथ गाया है। पारीक जाति विशेषत: कांथड़ि‍या कुल इन भगवद् भक्तिपरायण महासत्‍यव्रती करमैती बाईजी की सत्‍य कीर्ति से ऊंचा सिर करने को समर्थ है। ध्रुव, प्रहलाद, मीराबाई, सहजोबाई, कनकावतीजी आदि की तरह यह करमैतीजी भी भक्‍त नभमण्‍डल में एक चमकता हुआ निर्मल ज्‍योतिमय नक्षत्र है। धन्‍य, जो आपके पूर्वजों की ऐसी देवी गुणसम्‍पन्‍न सन्‍तानरत्‍न होती थी। धन्‍य भारतवसुन्‍धरा, जो तेरे गर्भ में ऐसी कन्‍या प्रगट हुई। क्‍या इस घोर भौतिकवादी युग में ऐसे भगवत्‍परायण मानवी पैदा होंगे?"

पारीक जाति की भक्‍त कर्मेती बाई

पारीक कुलचंद्रिका, भक्‍तशिरोमणि कांथडिया कुल प्रकाशिनी, श्री कर्मेती बाई के चरित्र का वर्णन ऊपर किया गया है। यह लेख भक्तिसंबंधी होने के अतिरिक्‍त ऐतिहासिक भी है। पूर्व समय में दर्शक प्रमाण आए हैं। कुछेक पट्टे परवानों का दिग्‍दर्शन हो गया है, जिनसे कर्मेती के इष्‍टदेव के मंदिर की आजीविका आदि का ब्‍यौरा भी मिल जाता है। 'पारीक' वर्ष अंक 8 के लेख के अनुसार-66

(1) हमको भ्रातृत्‍व पुरोहित रामगोपालजी तथा तिवाड़ी जी श्री रामप्रतापजी की कृपा से असल पट्टों की नकले मिली हैं जिनको पूरी की पूरी विषय पूर्ति के निमित्त यहां उद्धृत किए देते हैं, जिससे प्रमाण भी स्‍पष्‍ट हो साथ में रक्षित भी रहे।

(2) इसके अतिरिक्‍त खण्‍डेले के राजवंश का कुछ संकेत भी दे देते हैं कि कर्मेतीजी खण्‍डेले में जन्‍मी थी और खण्‍डेले के एक राजा का राज्‍य उनके द्वारा अलंकृत और पवित्र हुआ है। यह वही खण्‍डेला है जिसमें महादानी वृंदावनदासजी जैसे नृपति हुए जिनके धर्मध्‍वजा रूपी भूमिदान के पट्टे, गांव गांव और बस्‍ती बस्‍ती में फहराते हैं।

(3) अतिरिक्‍त, वृंदावन से प्रभुभक्तिपरायण मुन्‍शी जगर्वशरायजी कवि ने कर्मेतीजी का वृत्त लिख भेजा है सो ही जैसा का तैसा लिख देते हैं। यह भी जाने योग्‍य है कि कर्मेतीजी के पिता जायजवाल कांथडिया पुरोहित थे। इनकी वंशपरम्‍पा इस प्रकार है कि मोमण के परसो और परसो के 6 बेटे दामोदर, देदो, मुकुंद, कम्‍नू, धन्‍नू, ढुरेगो और एक बेटी कर्मेती हुई।

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